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पूनम राव - "फ्लर्ट करने की कोशिश भी मत करो, मैं किसी तिवारी सरनेम वाले से नहीं पटने वाली।"

आलोक तिवारी - " तुम इस तरह से सोचने वाली लड़की हो? सरनेम से क्या करना, और अगर यह चैलेंज है तो शर्त है कि तुम्हें पटा लूँगा। "

पूनम - " ओके! चैलेंज। मैं सिर्फ किसी साऊथ इंडियन की ही गर्लफ्रेंड बनूंँगी। वह भी सेम टु सेम मेरे सरनेम वाले के साथ।"

इस चर्चा के बाद आलोक और पूनम में बातें कम होने लगी और लगभग बंद हो गयी। लेकिन इंजिनियरिंग द्वितीय वर्ष में पढ रहे आलोक को यह बात अंदर तक लगी। पूनम से पहले वह 7-8 गर्लफ्रेंड बदल चुका था, ऐसा भी नहीं था कि पहली बार किसी ने 'ना' कहा हो। जाती-धर्म, प्रांत जैसी पेचिदा राहों से दुर आलोक एक खुलकर और बिंदास रहने वाला लड़का था। लेकिन जब भी कोई जातीवादी या प्रांतवादी किसी को खुद की महानता दिखा निचा दिखाने की कोशिश करता तब वह प्रतिक्रियावादी हो जाता और सबक सिखाने की सनक पाल लेता। इस बार भी यही हुआ।

पूनम से यह बात होने के बाद आलोक एक 'आरव राव' नाम से आईडी बनाता है। न तो उसने कभी आलोक की प्रोफाइल फिर रखी थी न ही आरव की रखी। एक महीने तक शातिर तरीके से एक बैकग्राउंड दिया ताकी आईडी विश्वसनीय लगे। पूनम के दो चार दोस्तों को ऐड किया। और फिर एक रोज पूनम को रिक्वेस्ट भेज दी। हर किसी की रिक्वेस्ट ऐक्सेप्ट करने वाली पूनम झट से एड कर लेती है। फिर शुरू होता है औपचारिक से अनौपचारिक बातों का रात रात भर चलता सिलसिला। लड़कीयों को इम्प्रेस कर सकने वाली भाषा बोलने में एक्सपर्ट आलोक को पूनम को अपनी ओर खिंचने में ज्यादा वक्त नहीं लगा।'राव' सरनेम तो था ही। नंबर अदला बदली हुई, लंबी बातें होने लगी। आलोक की उम्दा एक्टिंग और झुठ बोलने की शानदार कला के सामने पूनम के हर सवाल हर पैंतरे ध्वस्त हो जाते।

फिर पहली मुलाकात हुई, और होते चली गयी। आलोक पूनम के सामने पुरी तरह आरव बन जाता। एक झुठ छुपाने के लिये और नये सैंकड़ों गढ देता। अपनी चैलेंज जीत जाने की खुशी तो थी पर पूनम से मिलकर जाना की पूनम जैसी घमंडी और जातीवादी लगती थी है नहीं। उसने बताया कि अपनी ही कास्ट और सरनेम का लड़की ढूंढने के पिछे का कारण यह है कि 'उसकी माँ ने किसी अन्य कास्ट के लड़के से घर के खिलाफ जा शादी कि और वह उसे छोड़ चला गया। अब वह मामा के घर रहती है और वह नहीं चाहती कि उसके ऐसा करने पर फिर से माँ की बेईज्जती हो।" यह सुन आलोक के अंदर का वाल्मीकि जागता है, एहसास होता है कि वह कितना गंदा खेल रहा है किसी कि भावनाओं से। लेकिन यूँ लगा अब देर हो चुकी है, जैसे उसे प्यार हो चुका है पूनम से पर उसे खो देने का डर सच को सामने नहीं आने देना चाहता। कई मौके आये अंतरंग होने के पर वह सब सच बताने के बाद हो तो बेहतर हो आलोक यही सोचता रहा।

अंत में आलोक तय करता है कि वह सच कहेगा, और पूनम को मना लेगा। कम से कम दोस्ती तो बचा ही लेगा। रविवार का दिन तय होता है। पर अगर सब कुछ जैसा आलोक ने सोचा वैसा हुआ होता तो शायद यह कहानी न लिखनी पड़ी होती। रविवार से पहले शनिवार को ही दोनों मिलते हैं। रेस्टोरेन्ट में बिल देने के वक्त आलोक को वॉशरूम जाना होता है तो वह पर्स पूनम के हाथ दे जाता है कि इसमें से पैसे दे देना। आलोक जब बाथरूम से लौटता है तो देखता है पूनम फुट फुट कर रो रही है। वह आलोक को रोती आँखो से सिर्फ देख पुछ रही है "ऐसा क्यूँ किया?"

पूनम की आँखो में आँसू और सवाल थे, और उसके हाथ में आलोक के कॉलेज का कार्ड ,जिसपर लिखा था...
......"नाम- आलोक तिवारी"

ऐसा नहीं है कि आलोक ने कोशिश नहीं कि, पर क्या वह उसकी इस बात पर यकीन करती कि आलोक कल उसे सच बताने ही वाला था? नहीं। पूनम नहीं रूकी, ना मिली, ना फिर कभी दिखी। एक चैलेंज पूरा करने के चक्कर में सब तार तार हो गया। आलोक जीत कर भी हार चुका था। ग्लानि सारे अहंकार को नष्ट कर देती है। ऐसा नहीं कि आलोक ने फिर आगे गर्लफ्रेंड्स नहीं बनायी, लेकिन फिर उसने कभी किसी से झुठ नहीं कहा। उम्मीद है पूनम को कोई राव मिल गया होगा, और आलोक को एक सीख, कि ...

सच का अपना ही गर्व है,
झूठ की अपनी ही शरम।

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( इस कहानी के सभी पात्र और घटनायें हकीकत हैं। आप चाहें तो तिवारी की जगह पाण्डेय लगा सकते हैं, और आलोक की जगह ........ :-) )

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