बारहवीं कक्षा की शरारतें
... Classroom में प्रवेश करते देखा मैंने। पैरों के नीचे से डेस्क का लकड़ी का footrest खिसकने लगा था, चेहरे पर हवाईयां उडने लगी थीं। क्लास में सबके सामने बैठने की आदत ने, छुपने की कोई गुंजाइश न छोड़ी थी।
बात उन दिनों की है जब, "टपोरी" नामक शब्द अस्तित्व में नहीं आया था। शरारती कह देने भर से विशेषता समझ आ जाती थी। शरारतें भी अत्यंत मासूम, दुर्भावना रहित हुआ करतीं। जो किस्सा बताने जा रहा हूँ, वर्तमान समय में हो तो अलग ही रूप ले ले। मैं बारहवीं का छात्र था। अकोला के RLT College of Science के प्राचार्य, मेजर एम्.जी. जोशी सर हुआ करते थे। सेना के भूतपूर्व मेजर, अनुशासन के मामले में अत्यंत कठोर, मातहतों पर पूर्ण नियंत्रण व प्राध्यापकों-छात्रों पर आतंक, विशेषताएँ थीं उनकी। हम कुछ छात्र, जो कॉलेज की अन्य गतिविधियों के प्राण होते थे, यदाकदा थोडी liberty लेने की ताक में लगे रहते थे।
कॉलेज के मध्यांतर में, हम कुछ मित्र, मुख्य द्वार के पास चुहलबाजी, शरारतें किया करते पर जोशी सर आसपास नहीं है इसका ध्यान अवश्य रखते। हम लोगों की एक शरारत, काफी चर्चित थी कैंपस में। हममें से कोई एक, सामने से आ रहे, किसी व्यक्ति को, जब वह सौ मीटर पर होता, लगातार घूरना शुरु कर देता। इस ओर ध्यान जाते ही राही असहज हो उठता। यह क्रिया (घूरना) उसके पास आने तक जारी रहती, पास आते ही घूरना बंद। उसके गुजरते ही बाकी मित्र (घूरने वाले को छोड़ कर)पीछे मुड कर उस राही को देखते। असमंजस में पडा, बेचारा वह राही, अब पीछे मुड मुड कर हम लोगों को देख रहा होता। उसकी यह स्थिति हमारे झुंड के लिए ठहाके लगाने का सबब बनता और उस व्यक्ति के लिए चिढने का। अच्छा, चिढने वाले विभिन्न लोगों की प्रतिक्रियाएं भी विभिन्नता लिए होती। माने की बुजुर्ग, लडकियां, अन्य सहपाठी, अलग अलग प्रतिक्रियाएं देते। लडकियां झेंप जातीं, सहपाठी कॉलर पकड़ लेते तो बुजुर्ग क्रोधित हो परिवार व हम लोगों के पालन-पोषण के तरीकों का उद्धार करने लगते। पर जब कोई प्राचार्य से शिकायत को उद्यत हो उठता, तो पूर्ण संस्कारों से युक्त क्षमा मांग ली जाती। शिकायत afford जो नहीं कर सकते थे हम।
एक दिन मित्रों ने निश्चय किया की आज कुछ अलग करते हैं। हौसले तो बढे हुए थे ही। सामने से आने वाली किसी लडकी को आंख मारने का निश्चित हुआ। किस्मत के मारे माबदौलत को करना था यह महान कर्म। समय के उलटे फेर में पड, सामने से साइकिल पर आ रही एक लडकी के पास आते ही, हमने यह कर्म कर दिया। आंख मार दी! अपनी रौ में चली आ रही वह लडकी, मुझ पर आपादमस्तक दृष्टिक्षेप डाल, बिना किसी प्रतिक्रिया, हम लोगों के ठहाकों को नजरअंदाज करती, आगे बढ़ ली। हम सब नमूने, खासकर मैं, भावी से निश्चिंत ठहाके लगाकर हँसते रहे बड़ी देर तक।
जरा कल्पना कीजिये मेरी हालत की, जब Maths(Tutorial) के आखिरी period को लेने, उसी युवती को Classroom में प्रवेश करते देखा मैंने। पैरों के नीचे से डेस्क का लकड़ी का footrest खिसकने लगा था, चेहरे पर हवाईयां उडने लगी थीं। क्लास में सबके सामने बैठने की आदत ने, छुपने की कोई गुंजाइश न छोड़ी थी। क्लास छूटते ही मैंने केवल पैर पकडना छोड़, माफी मांगने का कोई तरीका नहीं छोडा। वे हंस रही थीं, बोलीं;
"इतना डरते हो तो, दुस्साहस किया ही क्यों?"
मैंने उत्तर दिया, "आप नई हैं न....अभी जानती नहीं हैं जोशी सर को !!"
"तो उनके डर से क्षमा मांग रहे हो?"
जैसे ही उन्होंने कहा, मैंने जिव्हा काट ली अपनी। पर चूक तो हो चुकी थी। फिर जब उनको ठहाका लगाते देखा तो जान में जान आई। प्राण बच गए थे मेरे!!
लगभग 8-9 वर्षों बाद, एक बार फिर यह घटना लज्जा का सबब बनी मेरे लिए। 1988 में औरंगाबाद में मैं मेरे एक मित्र के औरंगपुरा स्थित प्रतिष्ठान में किसी काम से गया था। यही मोहतरमा अपने पतिदेव के साथ वहाँ आईं, मुझे पहचान भी लिया और वह पूरा किस्सा, अपने पतिदेव को, आद्योपांत narrate भी किया। और फिर एकबार, मैं उनसे क्षमा याचना कर रहा था!!
(इमेज : साभार गूगल, संकेतात्मक रूप में)