हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास-38
क्षेपक... यदि हिंदी को हिन्दीभाषियों के संख्याबल के आधार पर राजकाज की भाषा होना था तो य ह अब तक बन क्यों नहीं पाई । यदि नहीं बन पाई तो इसलिए कि इसका प्रतिरोध स्वाभाविक था। इससे यह सन्देश जाता था कि हिन्दी हिन्दीभाषियों की भाषा हैं. इसके वर्चस्व से हिंदीवाले बाज़ी मर ले जायेंगे...
हिंदुत्व के प्रति घृणा का इतिहास - ३८
क्षेपक
आज मैं आपका परिचय एक ऐसे व्यक्ति से करना चाहता हूँ जिसे आधुनिक भारत का निर्माता कहा जा सकता है, मगर हमारी समझ की सीमा कहें या राजनीतिक नासमझी कहें कि उसके प्रति कृतज्ञ होने की जगह हमने उसकी तौहीन की और वह भी तब जब वह जवाब देने को न रहा।
यह अपराध हिन्दीप्रेम से शून्य , परन्तु हिन्दी के वर्चस्व के लिए आतुर और उसकी राजनीति करते हुए अपना उल्लू सीधा करने वाले, अल्पचेत वचनवीरों ने किया जिसके लिए हिन्दीभाषी होने के कारण मुझे भी ग्लानि अनुभव होती है!
इस अपराध स्वीकृति को प्रायश्चित्त भी कहा जा सकता है।
हमारे सामने दो बातें बहुत स्पष्ट होनी चाहिए। अंग्रेजी को ही नहीं किसी भी ऐसी भाषा को जो हमारे समाज से भौगोलिक दूरी रखती हो या हमारे वर्तमान से ऐतिहासिक दूरी रखती हो, उसको राजकाज की भाषा नहीं होना चाहिए। इस दृष्टि से अंग्रेजी, संस्कृत, फारसी किसी को यह सौभाग्य या अधिकार नहीं मिल सकता।
भारत की कोई भी आधुनिक भाषा इसकी पात्र मानी जा सकती है, वह बंगला या तमिल ही क्यों न हो।
भाषा जो भी क्यों न हो उसे एक अन्य परीक्षा से भी गुजरना होगा। जिस प्रदेश या क्षेत्र में वह भाषा बोली जाती है उससे बाहर भारत में निकलने पर स्वयं उस भाषा को बोलने वालों का काम उससे चल जाता है या नहीं, यदि नहीं तो जिस भाषा का सहारा लेने से किसी न किसी तरह काम चल जाता है, वह राजकाज के लिए भारत की स्वाभाविक भाषा हुई, क्योंकि इसको न सरकार थोपती है न ही कोई भाषाविज्ञानी न कोई कलामर्मज्ञ, यह चुनाव आप खुद करते हैं या अपनी ज़रूरत से करने को विवश होते हैं. आप स्वयं फैसला करते है कि इस देश के कामकाज की भाषा क्या है.
जो लोग यह समझते हैं कि हिन्दी को संख्याबल के आधार पर देश की राष्ट्रभाषा होना चाहिए वे दो बातें नहीं जानते जब कि जानना जरूरी है। पहली, यह नहीं जानते कि राजभाषा और राष्ट्रभाषा का अन्तर क्या हैं, दूसरे वे यह नहीं जानते कि भाषाओं का अपना दबाव राजकीय दबाव से अधिक प्रबल होता है और यदि दोनों का प्रवाह एकदिश हो तो परिणाम अधिक अच्छे निकलते हैं।
यदि हिंदी को हिन्दीभाषियों के संख्याबल के आधार पर राजकाज की भाषा होना था तो य ह अब तक बन क्यों नहीं पाई । यदि नहीं बन पाई तो इसलिए कि इसका प्रतिरोध स्वाभाविक था। इससे यह सन्देश जाता था कि हिन्दी हिन्दीभाषियों की भाषा हैं. इसके वर्चस्व से हिंदीवाले बाज़ी मर ले जायेंगे. यह ठीक वैसा ही भय था जो हिंदुओं (बंगालियों) की अग्रता के भय से सर सैयद को असुरक्षा का अनुभव हुआ था और उनको लगा था कि इस तरह तो हम मिट जायेंगे. सर सैयद के सन्दर्भ में यह चिंता साम्प्रदायिक चिन्ता बन जाती हैं, परंतु यदि इसे हम भाषा से जुड़े अन्य प्रश् नो के साथ देखना चाहे, समस्या अपने नग्न रूप मे रखें तो समस्या सामने आजाती हैं]
सचाई यह है कि हिन्दी की अधिकांश बोलियां विकसित भाषाएं हैं और हिन्दी क्षेत्र की एक विचित्र अन्तःक्रिया है कि हम एक भाषागत साझेदारी निभाते चले आए हैं जिसके कारण इसकी कोई भाषा यदि प्रचलन में आ जाय तो इसके भीतर कोई विरोध नहीं होता और इसके बाहर विरोध न भी हो तो अलगाव या पहचान की चिन्ता बनी रहती है। अन् यथा बोली तो खड़ी बोली थी जो हिन्दी बनी, दूसरी तो सभी भाषाएं थीं!
इस वनोद को त्याग भी दे तो हिंदी ने अपने क्षेत्र की भाषाओं के उत्थान की भूमिका निभाने में चूक करके अपना अहित किया , अन्यथा यह किसी छोटे या बड़े क्षेत्र की भाषा न हो कर अखिल भारतीय व्यवहार्य भाषा होती.
जिन्हें बात करना नहीं आता वे फालतू बातों में इतना समय गंवा देते हैं कि जो कहना होता है उसे कह ही नहीं पाते। अपने साथ भी यही मुसीबत है, परन्तु जब बात छेड़ ही दी तो यह तो बताते चलें कि राष्ट्रभाषा हमारे राष्ट्रपति की तरह एक शोभाधर्मी पद है। हमारा राष्ट्रीय पक्षी शोभाधर्मी मोर है जब कि हमारा सांस्कृतिक पक्षी कौआ है. शकुन विचार हो या पितरों को आहार या पिया का संदेश कौआ को याद किया जाता है. मोर का स्थान संस्कृत ले या अंग्रेजी, कौए का स्थान हिंदी को चाहिए, सन्देश ले आने या पहुंचाने की भूमिका उसकी होनी चाहिए क्योंकि यह हिन्दी भाषियों की भाषा नही भारतीयों की वाणी है जिसके चरित्र को समझने में हिन्दी क्षेत्र की भाषाओं की उपेक्षा बाधक रही है. राष्ट्रभाषा पद पर संस्कृत या अंग्रेजी में से किसी को रखा जाय तो मुझे कोई आपत्ति न हो. प्रधानमंत्री का पद देशकाकातीत किसी अन्य को नहीं दिया जा सकता. हमें अंग्रेज़ी की जरूरत ही नहीं हैं देशविदेश की सभी भाषाओँ के जानकारों की और उनके पठन पाठन की आवश्यकता हैं और इसी तरह संस्कृत की शिक्षा ही नहीं भारत की पुरातन और अद्यतन भाषाओं के अधिकारी विद्वानों की जरुरत हैं, ये हिन्दी के लिए बाधक नहीं साधक हैं.
परंतु जिस व्यक्ति के विषय में बात करनी थी उनका नाम मैकाले था. उनपर कल बात करेंगे. भूमिका बनाने में बात ही कहने से रह गयी . आज केवल उस महाचेता को नमस्कार !