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हिन्‍दुत्‍व के प्रति घृणा का इतिहास – 25

हम हिन्दू या मुसलमान या भारतीय या यूरोपीय रह कर बहुत सारे काम कर सकते हैं, वे काम बहुत अच्छे और सर्वजन सराहनीय भी हो सकते हैं, पर इतिहास नहीं लिख सकते। यह पूरी मानव सभ्य ता के विकास प्रक्रिया का अवलोकन है और सभी तरह के आग्रहों, दुराग्रहों से मुक्त हो कर ही देखा, परखा जा सकता है और उसके बाद ही हम किसी निर्णय पर पहुंच सकते हैं।

हमारा दुर्भाग्य यह कि अभी तक जो इतिहास लिखे गए हैं वे इसका निर्वाह नहीं कर सके हैं और इसलिए उनसे मनोमालिन्य जितना भी फैला हो, समझ का विस्तार नहीं हुआ है। एक फिकरा है, मैंने इसे आल्डहस हक्स्ले के उन कालमों पर आधारित एक पुस्तक में पढ़ा था जिसका नाम तक इस समय याद नहीं आ रहा, पर जो अखबारों में उनके कालम पर आधारित था। इतिहास पर लिखते हुए उन्हों ने लिखा था ‘’इतिहास से आदमी एक ही चीज सीखता है कि कोई इतिहास से नहीं सीखता।'' अपने विरोधाभासी तेवर में यह वाक्य जहन में इस तरह अटक गया कि जिस पुस्त क में यह लेख था वह भूल गया, पर लेख का शीर्षक ‘आन हिस्ट्री’ और यह वाक्य नहीं भूला। बाद में पता चला यह बात उनसे पहले भी कोई कह चुका है। याददाश्त के भी क्या पैंतरे हैं।

पर मैं एक दूसरा विरोधाभासी कथन यह करना चाहता हूं कि इतिहास से हम इसलिए कुछ नहीं सीखते कि इतिहास की समझ और उसका लेखन जिस बौद्धिक सन्तुलन और उत्त रदायित्वं की मांग करते हैं, वह अपनी चमड़ी से उछल कर बाहर हो जाने और फिर भी पूरे वजूद में खड़े होने जैसा कठिन है। हम जब अपनी सीमाओं पर नियंत्रण करना चाहते हैं तो भी, हमारे प्रयत्न के बाद भी, कुछ राग-विराग हमारी वस्तुपरकता में भी बना रह ही जाता है। इससे बचने का उपाय है, हम अपने आलोचकों के विचारों को, जिस सीमा में वे राग-विराग-मुक्त हों, उन पर ध्यान दें और किसी भी कृति को पढ़ते समय उसका आलोचनात्मक पाठ करें, यहां तक कि उसकी स्रोत सामग्री का भी आलोचनात्मक पाठ करें क्योंकि अवलेप उन पाठों और उनके स्रोतों तक में पाया जा सकता है। साथ ही यह भी जरूरी है कि हम एक ही पाठ के अन्तेर्विरोधों को भी लक्ष्य करते चलें और जहां उनमें असंगतियां है, उनके निवारण के लिए प्रयत्नशील हों, भले हमें इसके लिए पठित से विपरीत दावा करना पड़। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि दूसरे लोग अपने को अपने धर्म, विचारधारा, विश्वासधारा या अन्ये मनोबन्धों से बाहर निकल कर अपनी प्रतिक्रियायें निडर हो कर व्यक्त करें और इस दहशत में न रहें कि मैं अमुक दायरे में आता हूं इसलिए मेरे विचार को उससे प्रेरित मान लिया जाएगा। यह एक कोशिश है जिसके लिए हमें प्रयत्न करना है और किसी अवलेप से मुक्त बने रहने के लिए उन स्थलों और तथ्यों को इंगित करते हुए उनकी कमी और वास्तविक सूचना को प्रस्तुकत करने का प्रयत्‍न करना है।

मुझे इस बात की याद इसलिए आई कि मैंने यह तो पिछली पोस्ट में कह दिया कि सर सैयद हंटर के दबाव में आ गए और उसी से सचेत या अचेत रूप में परिचालित होते रहे जो गलत नहीं था, फिर भी इससे यह भ्रम पैदा होता है कि उनकी हंटर से सहमति थी या वह उससे सीधे परिचालित थे, जब कि सर सैयद उन व्यक्तियों में थे जिन्हों ने हंटर की तीखी आलोचना करते हुए ‘हंटर के हंटर’ शीर्षक एक समीक्षा लेख लिखा था और हंटर पर दुरुक्ति का आरोप लगाया था।

हंटर की पुस्तक को समझने के लिए सैयद अहमद की यह समीक्षा बहुत उपयोगी है और उपयोगी है उस कुटिलता को समझने के लिए भी कि हंटर जो खुफिया विभाग का सर्वेसर्वा था, उसने तथ्यों को छोड़ते और मरोड़ते हुए अपने उन कारनामों को छिपाने का प्रयत्न किया था जो बहुत पहले से कंपनी के प्रशासक हिन्दुंओ और मुसलमानों के बीच विरोध पैदा करने के लिए करते आए थे।

सैयद अहमद की समीक्षा उनके उस अन्तर्मन में झांकने का भी अवसर देती है जिस पर उन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों भारत माता की दो आंखें हैं कह कर और दूसरी दलीलें देते हुए आपसी भाईचारे की बात करते हुए परदा डाला था और जिसके कारण कई लोग अपने को सेक्युलर सिद्ध करने के लिए सर सैयद को भी सेक्युलर करार देते हुए उनसे असहमत होने वालों को संप्रदायवादी सिद्ध करते आए हैं जिसमें सेक्युलर बराबर मुसलमान और कम्युनल बराबर हिन्दू हो जाता है । यहां मेरा तात्‍पर्य यह नहीं है कि हिन्दुओं में अपने समुदाय के हित की चिन्ता नहीं थी, न ही अपने समुदाय की चिन्ता के कारण मैं सर सैयद को संप्रदायवादी कहने जा रहा हूं। ये घटिया श्रेणियां है जिनसे उन महापुरुषों का सही मूल्यांकन संभव नहीं है जिन पर हमारे उत्साही विद्वान किन्हीं प्रलोभनों में एक को उतार कर, अपने को उन सीमाओं से ही ऊपर नहीं सिद्ध करते रहे हैं, कई और तरह की ऊपरी यात्राओं के पाथेय के रूप में काम में लाते रहे हैं ।

रोचक यह तथ्य है कि हंटर और सर सैयद के द्वारा लिखित उनकी आलोचना से उन आशंकाओं की पुष्टि ही नहीं होती, अपितु प्रमाण भी मिलते हैं जिनको मैं हंटर की पुस्तंक के अन्तं:पाठ से उसकी असंगतियों और असंभाव्यताओं को लक्ष्य करते हुए अपने मन में पाले हुआ था और इसे उनकी पुस्तक में सचेत घालमेल कह कर आगे कोई जोखिम मोल लेने से बचता था। अब हम हंटर के एक दावे को लें :
The Bengal Muhammadans are again in a strange state. For years a Rebel colony has threatened our frontier; from time to time sending forth fanatic swarms, who have attacked our camps, burned our villages, murdered our subjects, and involved our troops in three costly wars…. They disclose an organization which systematically levies money and men in the Delta, and forwards them by regular stages along our high-roads to the Rebel Camp two thousand miles off. Men of keen intelligence and ample fortune have embarked in the plot and a skilfil system of remittances has reduced one of the most perilous enterprises of treason to a safe operating of bankibg.
While the more fanatical of the Musalmans have thus engeged in overt sedition, the whole Muhammadan cimmunity had been openly deliberating on their obligation to rebel. During the past nine months, the leading newspapers in Bengal have filled their columns with discussions as to the duty of Muhammadans to wage war against the queen. The collective wisdom of the Musalman Law Doctors of North India was first promulgated in a formal Decision (Fatwa).

हंटर का निष्कrर्ष यह था कि : The Musalmans of India are, and have been for many years, a source of chronic danger to the British Power in India. For some reason or the other they hold aloof from our system, and the changes in which the more flexible Hindus have cheerfully acquiesced, are treated by them as deep personal wrongs.

इसकी पृष्ठmभूमि में वह सिखो पर सीमान्त में अफगानों और कबीलाइयों के नृशंसतापूर्ण कारनामों का और उनके जवाब में सिखों के उतने ही क्रूर दमन और हत्याकांड का उल्लेख कर आए थे । इसके लिए हंटर ने वहाबी आंदोलन के भारतीय प्रवर्तक सैयद अहमद को जिम्मेदार ठहराया था जो पहले अफीम की तस्करी के धन्धे में पंजाब में सक्रिय था परन्तु रणजीत सिंह के शासन के बाद नशाखोरी पर पूर्ण प्रतिबन्ध लग जाने के बाद बेसहारा हो कर बरेली में आकर दो साल तक धर्मग्रन्थों का अध्ययन किया और फिर उसके बाद हज पर गया जहां से वह वहाबी मत का मंत्र ले कर आया और धार्मिक जुनून उभार कर मुसलमानों को अंग्रेजों के विरुद्ध भड़काता रहा और फिर
In 1824 he (sayed Ahmad) made his appearance in the wild mountaineers of Peshawar fronteirs preachin war against the rich Sikh towns of Punjab.
The Pathan Tribes responded with frantic enthusiasm to his appeal. These most turbulent and most superstitions of the Mohammaden people were only too delighted to get a chance of plundering their Hindu neighbour under the sanction of religion. … He traveled through Kandhar and Cabul, raising the country as he went consolidation his influence through skillful coalition of the tribes. Their avarice was enlisted trough splendid promises of plunder, …

इस पूरे विवरण में जो बात मेरी समझ से परे थी वह यह कि इन वहाबियों का ऐसा आतंक कैसे छा गया था कि वे बेखौफ अंगरेजी कचहरी के पास भी आ कर और वह भी बहुत बड़ी संख्या में नहीं, अंग्रेजों के खिलाफ लोगों को भड़काने वाले भाषण देते थे और उन पर आंच तक नहीं आती थी। दूसरी बात जो समझ से परे थी कि यह अदना सा आदमी इतना प्रभावशाली कैसे हो गया कि उसका दबदबा पूरे उत्तर भारत में फैलता गया और कोई रोकटोक नहीं हुर्इ यहां तक कि उसका प्रभाव पश्चिमोत्तर तक फैल गया और कंपनी जिसने शेरों का शिकार किया था मेमने से डर कर सहम गई। इन दोनों कारणों से मुझे यह सन्देह था कि रणजीत सिंह की दूरदर्शिता, शक्ति और कौशल के साथ ही अपनी सेना को आधुनिक बनाने के लिए उनके द्वारा फ्रांसी‍सी सैन्य विशेषज्ञों की सहायता लेने, अपना तोपखाना तैयार करने की सूचनाओं के कारण आतंकित कंपनी ने इस धर्मान्ध को जिसकी जड़ें पहले से पश्चिमोत्तर में उसके नशे के कारोबार के कारण थी , उकसा कर उसकी शक्ति का संवर्धन किया और फिर उसे सिखों के विरुद्ध उपद्रव के लिए लगा दिया और इसे हिन्दू मुसलिम का या मुसलिम सिख का रंग दे कर प्रचारित करती रही या कम से कम हंटर ने उसे इसी रूप में रखा। मेरी आशंका को प्रमाणित करती है सर सैयद की समीक्षा। सर सैयद को हंटर की उसस्था पना से ही शिकायत है जिसमें वह Wahabism and rebellion against the British Government as synonymous के रूप में पेश करते हैं।

सचाई यह है कि:
Throughout the whole of his career, not a word was uttered by this preacher calculated to incite the feelings of his co-religionists against the English. Once at Calcutta, whilst preaching the jihad against the Sikhs, he was interrogated as to his reasons for not proclaiming a religious war against the British, who were also infidels. In reply he said, that under the English rule Mohammedans were not persecuted, and as they were the subjects of that Government, they were bound by their religion not to join in a jihad against it At this time thousands pf armed men and large stores of munitions of war were collected in India for the jihad against the Sikhs. Commissioners and magistrates were aware of this, and they reported the facts to Government. They were directed not to interfere, as the Government was of opinion that their object was not inimical to the British. In 1824 these jihadis against the Sikhs reached the frontier, and they were afterwards continually strengthened by recruits and money from India. This was well known to Government, and in proof of this I will cite the following case: A Hindu banker of Delhi, entrusted with money for the Wahabi cause on the frontier, embezzled the same, and a suit was brought against him before Mr William Fraser, later Commissioner of Delhi. The suit was decided in favour of the plaintiff, Moulvi Ishak, and the money paid in by the defendant was forwarded to the frontier by other means. The case was afterwards appealed to the Sudder Court at Allahabad, but the decision of the Lower Court was upheld.
इससे आगे की चर्चा कल ।

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