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हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास - 37

2. आगे बढने का अभिशाप

आप हिमालय की चोटी से छलांग लगा कर उससे फुट दो फुट ऊपर उठ सकते हैं, पर अपनी चमड़ी से छलांग लगा कर बाहर नहीं निकल सकते; उसे संवार और निखार अवश्य सकते हैं, उसमें व्याधियां है तो उन्हें दूर अवश्य कर सकते हैं। चमड़ी का एक अदृश्य रूप हमारी परिस्थितियां होती हैं जो व्यक्ति के साथ भी जुड़ी होती हैं, और समाज के साथ भी । हिमशैल की तरह इसका एक क्षुद्र अंश हमारे वर्तमान से निर्धारित होता है और शेष इतिहास से।

हम पहले भी कह आए है कि आगे बढ़ने वालों मेे पिछड़ जाने वालों से अपने को श्रेष्ठ समझने की भावना स्वतः पैदा हो जाती है। यह प्रकृति का नियम है और इसके असंख्य उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं, परन्तु पिछड़ जाने वाले यदि अपने सगे हुए और उस अग्रता से लाभान्वित हुए तो कृतार्थता के बाद भी मन में एक हीन भावना पाले रहते हैं और यह ईष्र्या का रूप ले लेता है जो कृतघ्नता के भय से अपने चेतन में भी अपवाद रूप में ही आ पाता है, परन्तु सीधे लाभान्वित न होने वाले, जिनको उनके दबाव में रहना पड़ता है उनमें यह आज्ञाकारिता के बावजूद बना रहता है और इसमें मृदुता तभी आ पाती है जब आगे बढ़ा हुआ व्यक्ति या समुदाय उनके साथ इतने आत्मीय भाव से व्यवहार करे कि उसकी आंच उन्हें अनुभव न हो। यह हो सके तो चमत्कार हो जाय, असाधारण आत्मनियन्त्रण वाले विरल व्यक्तियों में यह संभव भी हो सकता है, परन्तु किसी पूरे समुदाय से इसकी अपेक्षा नहीं की जा सकती और इसलिए अग्रता ईर्ष्या का और वह ईर्ष्या घृणा का रूप ले लेती है और कई बार इसके बहुत विकट परिणाम झेलने पड़ते हैं।
अन्य बातों के अतिरिक्त इसका एक रूप यह भी होता है कि पिछड़ा व्यक्ति अपने पिछड़ेपन के लिए आगे बढ़ जाने वाले व्यक्तियों और समुदायों को दोषी मानता है, जैसा वर्णव्यवस्था के मामले में हम पाते हैं। कृषिकर्म की ओर अग्रसर होने वाले देवों/ब्राह्मणों/आर्यों को असुरों/राक्षसों के जिस विरोध का सामना करना पड़ा उसकी कहानियां सिहरन पैदा करने वाली हैं।
आरंभ में यह विरोध दो विचारधाराओं के कारण था जो आज भी विकास और पर्यावरणवादियों के बीच देखा जा सकता है। तब इसका चरित्र भिन्न था। कृषिकर्मी समर्थन पाने के लिए, अपनी संख्या बढ़ाने के लिए स्वयं आग्रह कर रहे थे कि प्रकृति उत्पाद पर निर्भरता छोड़ कर उत्पादन आरंभ करो। इसे वे यज्ञविस्तार कहते थे और बाद में आर्यव्रत का प्रचार।

आरंभिक आपदाएं झेलने के बाद उन्नत उत्पादन और संगठन शक्ति के बल पर उन्होंने अपने विस्तार के क्रम में वनक्षेत्र केा कृषिक्षेत्र बनाने का जो दबाव बनाया तो उन्हें ही जो पहले उनका हिंसक विरोध कर रहे थे, उनके सेवा कार्य में लगना पड़ा और उनके निर्देशन में वे सारे काम करने पड़े जिनसे वे बचना चाहते थे।

श्रम नहीं सूझ, पहल और उससे जुड़ा अध्यवसाय किसी समाज को और उस समाज के किन्हीं तबकों को दूसरों से आगे बढ़ाता है, और उसे अपने भीतर पैदा करके ही और ऐसा करने वालों की प्रभावशाली संख्या हो जाने के बाद ही कोई पिछड़ा व्यक्ति, समुदाय, समाज या देश उस हैसियत में पहुंच सकता है जिसमें वह स्वयं दूसरों के लिए अनुकरणीय बन सकता है।
प्रकृति, अर्थात जो सहज सुलभ है उस पर जीने वालों को स्वयं कुछ नहीं करना पड़ता था, उपलब्ध को जुटाना या झटपट समेटना, पेट भरना और मौजमस्ती करना होता था, इसलिए अपनी पहल पर श्रम कार्य से भी उन्हें परहेज था, परन्तु अभाव के दिनों में उनकी जो दुर्गति होती थी वह भी उस कुपोषण की याद दिलाती है जिसे शिव के गणों के रूप में चित्रित किया जाता रहा है । अपने पिछड़ेपन के लिए वे स्वयं उत्तरदायी थे, पर पिछड़ जाने पर आगे बढ़े तबकों, समुदायों, समाजों या देशों का शोषण और दोहन भी झेलना पड़ता है जो उनकी विवशता को बढ़ाता है, परन्तु आज की स्थिति में जब दबाव कम हुआ है, अवरोध हटे हैं, पुरानी मनोवृत्ति यद्यपि न तो दलितों और पिछड़ों की बदली है न जिन्हें अगड़ा माना जाता है, उनकी, क्योंकि भौतिक परिस्थितियों में टिकाऊ बदलाव आने के बाद ही मनोवृत्तियां बदलती है। उससे पहले बदलने का दावा करने वाले दिखावा करते हैं, अपनी ओर से इस दिशा में प्रयत्न भी करते हैं, परन्तु बदल चुके होने का दावा करें तो पाखंडी सिद्ध होंगे।

यदि आज भी पिछड़े समुदाय केवल आरक्षण पर ही भरोसा करें, उसका सदुपयोग न करें, उसका अपने ही समुदाय में हस्तान्तरण न करें, उनमें जीवट और पहल और नयी समझ और सूझ पैदा न कर सकें तो बराबरी का दावा नारा बना रहेगा, यद्यपि उनके भौतिक से भी अधिक मानसिक पिछड़पन का लाभ दूसरे उठा सकते हैं और उनको मानवीय बनने की अपेक्षा आततायी बनने या कहें पुराने असुरों राक्षसों की भूमिका में डालने का प्रयत्न अवश्य कर सकते हैं जो किसी के लिए कल्याणकारी नहीं है।

हमारी अब तक की छानबीन में हमने यह पाया कि अपने पूरे इतिहास में आज की तिथि में हिन्दू से अभिहित समाज अपनी अग्रता के कारण ईर्ष्या और क्षद्म या प्रकट कुत्सा और घृणा का पात्र बना रहा और अपने दमन, पराधीनता और पराभव के दौरों में भी उसने अपने विशिष्ट मूल्यों के बल पर अपने आत्मविश्वास को खोया नहीं।

अब इस पृष्ठभूमि में ही हम उन कारणों, कारकों और उनके प्रतिफलनों को समझ सकते है जिसने बंगाली जाति की चेतना को पैदा किया और जिसको आधार बना कर अंग्रेजों ने अपनी कूटनीतिक चातुरी से उसे हिन्दूफोबिया में बदल कर सर सैयद की सोच को भटका दिया जिसने सांप्रदायिकता, सामाजिक कटुता और पारस्परिक घृणा का रूप ले लिया या इसकी संभावना पैदा की ।

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