हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास -37-4
4 . नशे की साम्प्रदायिकता और नशे की राजनीति
हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास -37
4 . नशे की साम्प्रदायिकता और नशे की राजनीति
कोलकाता में रहते मैंने बहुत से बंगालियों को सुंघनी का आदी पाया. सभी हिन्दू थे. एक भी मुसलमान नहीं. नशे में भी साम्प्रदायिकता ! मैंने पूछा इसका फायदा क्या है तो पता चला इससे दिमाग खुल जाता है. परेशान हुआ कि हिंदुओं को अपना दिमाग खोलने का इतना चाव और मुसलमानों में नदारद ! बंगालियों का पाला सिर्फ अंग्रेजों से नहीं पड़ा, सीरामपुर में फ्रांसीसियों का भी अड्डा था. फ़्रांसिसी भारत में अंग्रेजों की तुलना में अधिक मित्र भाव से रहते थे. बंगालियों के संपर्क में भी आये. बंगालियों को लगा कि फ़्रांसिसी लोगों का दिमाग आला दर्जे का है और इसकी वजह उन्हें साफ दिखाई दी कि वे सुंघनी सूंघते हैं और उन्होंने अपना दिमाग सुंघनी की आदत डाल कर बढ़ाने की कोशिश की. अंग्रजो का दिमाग भी कुछ कम तो था नहीं. वे सिगरेट पीते थे. उन्होंने सिगरेट से भी दिमाग को बढ़ाया.
मेरे कई मित्रों का मानना था की सिगरेट की कश लेने से दिमाग का कंसंट्रेशन बढ़ता है. अपने मुस्लिम मित्रों को सिगरेट पीते इतना कम देखा कि कोशिश करने पर भी किसी की याद नहीं आरही, जब कि अपने हिन्दू मित्रों में कई को पाया कि सिगरेट से पूरा कंसंट्रेशन न होते देख कर उन्होंने सिगार और पाइप की भी आदत डाली.
मुझे फ़िक़्र होती है कि दिमाग खोलने और एकाग्रता बढ़ाने के नुस्खे इतने आसान होते हुए भी मुसलमानों ने इन्हें आजमा कर देखा क्यों नहीं. कयास यह लगाया कि मुहम्मद साहब के ज़माने में तम्बाकू का पता तो था नहीं इसलिए पढ़े लिखे मुसलमानों को भी सुंघनी, सिगरेट, सिगार और चुरुट से दिमाग खोलने का ख्याल ही नहीं आया.
पुराने समय से ही भांग का नशा भी मन की एकाग्रता के लिए था जिसका चंडू की तर्ज पर चिलम पर रख कर कश लेने से गांजा का प्रयोग शुरू हुआ हो सकता है.
अफीम, कोकीन, चंडू और माजून आदि की मध्येशियाई और चीनी आदतें मुग़लों के साथ आई थीं और मुग़ल काल के साथ चली गईं मगर इनमे से किसी का दिमाग खोलने और एकाग्रता बढ़ाने से सम्बन्ध नहीं. इनका सम्बन्ध निर्वेदता से अर्थात दिमाग को सुन्न करने से है.
आयुधजीवी लुटेरों को युद्ध में चोट से पीड़ा न हो इसके लिए अफीम, माजून की आदत बचपन से ही डाली जाती थी और चीनियों को मंगोलों और हूणों के साथ लगातार जूझना पड़ा क्योंकि उनके बीच हिमालय की दीवार नहीं थी, वह दीवार तंग आकर उन्हें चीन की दीवार के रूप में बनानी पड़ी फिर भी मंगोलों और हूणों का इतनी बार हमला हुआ और इतनी पैठ बनी कि अफीम कि आदत चीनियों को पड़ ही नहीं गयी आधी से अधिक आबादी मंगोलीय मुखाकृति वाली हो गई और इसलिए ज्ञानपिपाशु चीनी जनता अफीम की शौकीन और प्रकृति में जुझारू हो गई.
कहा जाता है कि अंग्रेजों ने चीनियों को अफीमची बनाया और फिर भारत में अफीम पैदा कर के वही अफीम चीनियों को देकर उनका माल असबाब बिना सोना गंवाए खरीदते रहे, पर सचाई यह है कि नशे के कारोबार से अधिक बाध्यकर कोई कारोबार नहीं. अंग्रजो ने कुछ भी नया नहीं पैदा किया, यहाँ तक कि हमारा सांप्रदायिक विभेद पैदा करने के लिए भी, उन्होंने सामाजिक परिस्थिति का बारीकी से अध्ययन और विश्लेषण किया और फिर उनका विस्तार और उपयोग किया.
स्वतन्त्रता संग्राम के दौर में अंग्रजों के विरुद्ध जनमत तैयार करने के लिए उनको जितना दुष्ट सिद्ध किया उससे कई गुना दुष्ट हमारा अपना प्रशासन हो चुका है और उन्नीसवीं शताब्दी के सर सैयद और बीसवी सदी के नीरद चंद्र चौधरी के बाद मैं भी यह मानता हूँ, यद्यपि कारण भिन्न हैं, कि यदि हम अंग्रेजो से बच भी जाते तो जो परिस्थितियां हमने पैदा कर रखी थीं उनमे हमें दूसरे ग़ुलाम बना सकते थे, और जैसा कि बाद के इतिहास ने सिद्ध किया सबसे सभ्य और सबसे समझदार अँगरेज़ ही थे, जिन्होंने कानून का राज्य स्थापित किया. इसलिए यह हमारा दुर्भाग्य गर्भित सौभाग्य है कि हम अंग्रेजी अधीनता में रहे और उन्होंने अपने नियम, कानून की गरिमा का नस्ली पूर्वाग्रह और प्रशासनिक सीमाओं के होते हुए भी जिस तरह निर्वाह किया उस तरह हम नहीं कर पा रहे हैं.
इसलिए मैं अपनी विफलताओं के लिए अंग्रजों और उनके हथकंडों को दोष देने की जगह अपने आप से यह सवाल करना चाहता हूँ की क्या हम उनको दोष देने की जगह आत्मालोचन और प्रतिरोध की सही युक्ति अपना सके. अंग्रेजों ने कुछ ऐसा नहीं किया जो हमारे नीतिशास्त्र के विपरीत हो.
मध्यकालीन समाज में लाठी और भैस के बीच जो रिश्ता बन गया था वह आज के भारत का यथार्थ है. यह तय करना हो की हम आगे बढे हैं या औपनिवेशिक काल से भी पीछे के मध्यकाल में पहुंचे हैं तो पहली नज़र में ऑंखें चौंधिया जाएँगी और जवाब देते नहीं बनेगा.
मैं जानता
हूँ आप इस पोस्ट से निराश होंगे. सोचा था कि पिछली बातें बहुत भारी पड़ी
होंगी इसलिए इसे कुछ हल्का बनाया जाये और भटकने का हाल यह कि कहाँ पहुँच गए
पता ही नहीं. गाने तो 'ये दिल मेरे बस में नहीं' के बने हैं, पर दिमाग
अपने बस में होता तो कल के अंत से आगे की बात करता. नज़र आया नशे तक की
साम्प्रदायिकता और राजनीति होती है, उनसे भी मानसिकता और अग्रता और पिछड़ेपन
का गहरा सम्बन्ध है तो उधर मुड़ गए.
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यदि हमारा ऊपर का तथ्य
निरूपण सही हो तो हिन्दू अपने नशे की मूर्खताओं में भी बौद्धिक और नैतिक
उत्थान की संभावनाओं की तलाश में रहा है और संभ्रांत मुस्लिम वर्ग और
उसकी अपेक्षाओं पर सही उतरने वाले राजपूतों ने अफीम की सेवादारी को अपनी
संस्कृति का अंग बना लिया जिसका उल्लंघन जशवंत सिंह जैसे सुशिक्षित
व्यक्ति भी नहीं कर सके.
शराब की बात तो रह ही गयी. इसका इतिहास तो बहुत पुराना है और यह किसी न किसी रूप में सभी समाजो में प्रयोग में आता रहा है परंतु कुछ में इसे निंदनीय माना जाता रहा कुछ में वर्जित और कुछ में आनदानुभूति का साधन. पहले में यह वैदिक समाज में था पर इसका वर्जना पक्ष ही इसको आकर्षक बनाता रहां होगा. सोम का सेवन करने वालों को सुरा का आनंद लेने के लिए सौत्रामणी की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी और संभव है इस्लाम में यह वर्जित रहां हो पर ईरानी संस्कृति और सूफी रीति की आड़ लेकर यह इस्लामी निग्रहवाद के विरुद्ध पाबंदियों से मुक्ति के लिए चोर दरवाजा जैसा खुला तो सर्जना से लिए तड़पते कवियों के बीच यह दर्शन और मस्ती का पेय सबसे अधिक चलन में आया और वहां से इसका अधिमूल्यन आरम्भ हुआ तो इन इबारतों को लिखनेवाला भी ये इबारतें भी उसी के असर में लिख रहा है, यह जानते हुए की बौद्धिक और नैतिक स्खलन का रास्ता यहीं से शुरू होता है.
आदतों की गुलामी भी गुलामी ही है पर इस गुलामी में गुलामों की हथकड़ियां और बेड़ियां हाथों और पावों में नहीं, चेतना में होती हैं. गुलामी के अनेक रूप होते हैं जिनमे सबसे बाध्यकर होती है विचारों और विश्वासों की गुलामी, क्योंकि यह गुलामी प्रतीत ही नहीं होती. गौरव का विषय बन जाती हैं. गुलामों को गुलामी के फायदे आज़ादी के जोखिमों से अधिक आकर्षक प्रतीत होने लगते हैं .