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मन की अलकनन्दा

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निर्मल शीतल सी हो जाऊं,
ज्यों ज्यों निरखूं तुझको चन्दा
सतत-निरंतर-अविरल जैसे
बहती हो मन में अलकनन्दा
...

रोग-दोष तन को लग जाते हैं
वैसे ही मन को प्रीत लगी
सुर ना तान का ज्ञान मुझे
गावन मैं लय में गीत लगी
तुम निकट बसूं अब सखा सांवरे
जैसे बसती बृज में वृन्दा

परम-प्रफुल्लित, प्रेम तरंगित
बहती है मन में अलकनन्दा
......

सुमिर-सुमिर जब प्रेम भर आये
मति-गति-अति मन्द हो जाये
मन्द चलूँ, मन्द-मन्द मैं डोलूं
मन्द हसूं, मैं मन्द ही बोलूं
देख नगर-जन परिहास करें
बोलें मुझको नारी मन्दा

सुरभित-पुलकित गति मद्धम ले
बहती है मन में अलकनन्दा
.......

द्वैपायन के पुराण पढ़े
ब्रह्मा-विरंचि के वेद
प्रेम-बिधि ही प्रभु मिले
तब जाना मैंने ये भेद
उदासीन सब कष्टों में मैं
निज-उर होवे परमानन्दा

पाप झारती, प्रभु-पद पखारती
बहती है मन में अलकनन्दा

सतत-निरंतर-अविरल-कलकल
बहती है मन में अलकनन्दा



सुलभ गुप्ता

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