हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास-22
औरंगजेब वह अन्तिम शासक है जो मन्दिरों को तोड़ने, अपवित्र करने और हिन्दुओं के दमन के लिए जाना जाता है। परन्तु अपने अंन्तिम दिनों में ऐसा लगता है कि उसे अपनी नीति से मोहभंग सा हो चला था।
हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास -22
औरंगजेब वह अन्तिम शासक है जो मन्दिरों को तोड़ने, अपवित्र करने और हिन्दुओं के दमन के लिए जाना जाता है। परन्तु अपने अंन्तिम दिनों में ऐसा लगता है कि उसे अपनी नीति से मोहभंग सा हो चला था। अपना अंतकाल निकट आने पर उसने अपने दो पुत्रों को जो पत्र लिखा था उससे इसका कुछ आभास होता है। जोनाथन स्काट जो वारेन हेस्टिंग्स का फारसी विशेषज्ञ था औरंगजेब ने निजी जिन्दगी के बहुत सारे वाकये दर्ज किए थे! उनका अनुवाद उसने किया पर कहते हैं इरादत खां के कागजों में नहीं मिलते! स्थिति जो भी हो इनमें कोई राजनीतिक चाल नहीं दिखाई देती इसलिए इन पर भरोसा किया जा सकता है। इसकी कुछ पंक्तियों पर हम नजर डाल सकते हैं।
अजीम शाह को लिखे अपने पत्र में वह लिखता हैः
The instant which passed in power, hath Left only sorrow behind it. I
have not been the guardian and protector of the empire. My valuable time
has been passed vainly .... My son (Kaum Buksh),though gone towards
Beejapore, is still near; and thou, my son, are yet nearer. ...The .camp
and followers, helpless and alarmed, are like myself, full of
affliction, restless as the quicksilver. Separated from their lord, they
know not if they have a master or not. I brought nothing into this
world, and, except the infirmities of man, carry nothing out. I have a
dread for my salvation, and with what torments I may be punished. Though
I have strong reliance on the mercies and bounty of God, yet, regarding
my actions, fear will not quit me .... Though Providence Will protect
the camp, yet, regarding appearances, the endeavours of my sons
are indispensably incumbent."
काैम बख्श को लिखे पत्र में :
"My son, nearest to my heart. Though in the height of my power, and by
God's permission, I gave you advice, and took with you the greatest
pains, yet, as it was not the divine will, you did not attend with the
ears of compliance. Now I depart a stranger, and lament my own
insignificance, what do's it profit me? ... My fears for the camp and
followers are great; but alas! I know not myself. My back is bent with
weakness, and my feet have lost the power of motion .... I have
committed numerous crimes, and know not with what punishments I may be
seized .... When I was alive no care was taken; and now I am gone, the
consequence may be guessed. The guardianship of a people is the trust by
God committed to my' sons …The domestics and courtiers, however
deceitful, yet must not be ill-treated…. The complaints of the unpaid
troops are as before. Dara Shekoh, though of much judgment and good
understanding, settled large pensions on his people, but paid them ill,
and they were ever discontented. I am going. Whatever good or evil I
have done, it was for you."
यह दूसरी बात है कि उसके तीसरे बेटे बहादुरशाह ने इन दोनों बेटों को पराजित करके तख्त पर कब्जा कर लिया और बूढ़ा होने के कारण 1712 में, औरंगजेब की मौत से पांच साल बाद भी चल बसा और उसके बार राजनीतिक घटनाचक्र तेजी से बदलने लगा। इनका ब्यौंरा देना जरूरी नहीं है।
सल्तनत की ताकत में गिरावट के साथ मुस्लिम समुदाय में सांस्कृतिक अस्मिता की चिन्ता प्रखर हुई और इसका इस्तेमाल कंपनी शासन ने बहुत दक्षता से किया क्योंकि उसे पता था कि अब उसकी सत्ता को ऐसी चुनौती देने वाला कोई नहीं, इसलिए अब वे मुसलमानों को हिन्दुओं से टकराव की स्थिति में रख कर ही सुरक्षित रह सकते हैं। उनकी गूढ़ योजनाओं, उनको अमल में लाने के तरीके जानकारी हमारे जैसे सतही जानकारी रखने वाले को नहीं हो सकती, परन्तु उनकी पहली जरूरत थी मुसलमानों को अपना विश्वसपात्र बनाना क्योंकि संख्याबल को देखते हुए अब उनको अधिक खतरा हिन्दुओं से था जो उनके सेवक और सहायक बनने के लिए तैयार थे और इसके लिए अपेक्षित योग्यताएं अर्जित करने के लिए प्रयत्नशील थे।
इंश्ाा अल्ला खां अपनी रानी केतकी की कहानी के लिए खड़ी बोली हिन्दी और उर्दू के पहले कहानीकार माने जाते हैं । वह दिल्ली के दुखद अनुभवों के बाद लखनऊ पहुंचे थे और अपने अन्तिम दिन पस्ती और निराशा में काटेते हुए 1817 में स्वर्गवासी हुए थे।
अपने व्याकरण की पुस्तक दरियाए लताफत में दो विभेदकारी टिप्पणियां करते हैं। सलीके की उर्दू के लिए वह हिन्दुओं के द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले शब्दों को आधिकारिक नहीं मानते हैं और इसका कारण बताते हुए यह कहते हैं कि हमने उनकों बोलने का अन्दाज सिखाया, खाने-पहनने का शऊर सिखाया, फिर हम उनके द्वारा प्रयुक्त शब्दों को साधु प्रयोग कैसे कह सकते हैं!
मैंने दरियाये लताफत देखी नहीं, अब्दुल हक़ साहब जो उर्दू के पितामह, बाबा-ए-उर्दू माने जाते हैं, उन्होंने उनके विचारों का समर्थन किया इसलिए हम उस पर कुछ कहने के अधिकारी नहीं। हमारी जानकारी फैसलावबाद विवि के भाषाविज्ञान के प्रो तारिक अ
यहां मैं यह नहीं कह रहा हूं कि इंषा अल्ला खान का कथन गलत था। नियम पुराना है जैसा राजा वैसी प्रजा, या यत् यत् आचरति श्रेष्ठः तदेव इतरे जनाः। मनुष्य की स्वाभाविक आकांक्षा है अपने से ऊपर उठने की, ऊंची हैसियत पाने की और इसलिए वह अपने समय के समृद्ध और प्रतिष्ठित जनों की नकल करता है और इसका दबाव ही था कि परंपरावादी ब्राह्मण तक मिरजई पहनने लगे थे, पगड़ी या साफा बांधने लगे थे, महिलाएं सलूका पहनने लगी थीं। कुर्ता, कमीज, शमीज ही नहीं बहुत कुछ हिन्दुओं ने मुसलमानों से लिया था। इसे हिन्दुओं ने मुसलमानों से लिया था कहने से अधिक सही होगा कि छोटी हैसियत के लोगों ने अपने समय की ऊंची हैसियत के लोगों से लिया था।
हम यहां इसकी गुणवत्ता में नहीं जाएंगे, न यह दावा करेंगे कि यह कथन गलत था जैसे आज भी वकीलों और बैरिस्टरों को गर्मी और बरसात में भी टाई लगाए, चोंगा पहने देख कर यह नहीं कह सकते कि वे नक्काल है, न न्याय दे सकते हैं न न्याय कर सकते हैं, क्योंकि उनमें इतनी भी अक्ल नहीं कि वे यह तय कर सकें कि उन्हें कब क्या पहनना चाहिए। ये स्वतन्त्र भारत पर गुलामी को थोपते रहने वाले सड़ंे दिमाग के पुरातनपंथी हैं और इसलिए न्याय को सर्वजन सुलभ, सर्वजनग्राह्य भाषा में किया जाना चाहिए इसका विरोध करने के भी तरीके निकाल लेते हैं। सामान्य जनों की तो बात ही अलग है। गो सुविधाकांक्षी सबसे अधिक बिकाऊ और सुविधाजीवी सबसे अधिक बिका हुआ प्राणी होता है।
अपने व्याकरण की पुस्तक दरियाए लताफत में उन्होने दो बहुत निर्णायक टिप्पणियां की हैं। सलीके की उर्दू के लिए वह हिन्दुओं के द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले शब्दों को आधिकारिक नहीं मानते हैं और इसका कारण बताते हुए यह कहते हैं कि हमने उनकों बोलने का तरीका सिखाया, खाने-पहनने का शऊर सिखाया, फिर हम उनके शब्दों को साधु प्रयोग कैसे कर सकते हैं!
मैंने दरियाये लताफत देखी नहीं, अब्दुल हक़ साहब जो उर्दू के पितामह, बाबा-ए-उर्दू माने जाते हैं, उन्होंने उनके विचारों का समर्थन किया इसलिए हम उस पर कुछ कहने के अधिकारी नहीं। मेरी अपनी जानकारी तारिक रहमान पर आधारित है जाे जाफरावाद में भाषाविज्ञान के प्रोफेसर हैं।
यहां मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि
इंशा अल्ला खान का कथन गलत था। नियम पुराना है जैसा राजा वैसी प्रजा, या
यत् यत् आचरति श्रेष्ठः तदेव इतरे जनाः।
मनुष्य की स्वाभाविक आकांक्षा
है अपने से ऊपर उठने की, ऊंची हैसियत पाने की और इसलिए वह अपने समय के
समृद्ध और प्रतिष्ठित जनों की नकल करता है और इसका दबाव ही था कि
परंपरावादी ब्राह्मण तक मिरजई पहनने लगे थे, पगड़ी या साफा बांधने लगे थे,
महिलाएं सलूका पहनने लगी थीं। कुर्ता, कमीज, शमीज ही नहीं बहुत कुछ
हिन्दुओं ने मुसलमानों से लिया था। इसे हिन्दुओं ने मुसलमानों से लिया था
कहने से अधिक सही होगा कि कहें छोटी हैसियत के लोगों ने अपने समय की ऊंची
हैसियत के लोगों से लिया था।
हम यहां इसकी गुणवत्ता में नहीं
जाएंगे, न यह दावा करेंगे कि यह कथन गलत था जैसे आज भी वकीलों और
बैरिस्टरों को गर्मी और बरसात में भी टाई लगाए, चोंगा पहने देख कर यह नहीं
कह सकते कि वे नक्काल है, न न्याय दे सकते हैं न न्याय कर सकते हैं,
क्योंकि उनमें इतनी भी अक्ल नहीं कि वे यह तय कर सकें कि उन्हें कब क्या
पहनना चाहिए। रुतबे के लिए आदमी नरक वास भी कर सकता है।
हमारा सबसे
सीघा सवाल है कि इस तरह के प्रश्न या इस तरह की दर्पोक्ति उस पूरे दौर में
किसी ने क्यों नहीं की जब सचमुच उनका अनुकरण किया जा रहा था और इस खास मोड़
पर जब गौरव चुक रहा था, इसका तीखा बोध इंशा अल्ला खां को स्वयं था,
उन्होंने प्रसंग से हट कर अवांछित उदाहरण देते हुए इसका दावा क्यों किया।
यह एक बहुत निर्णायक मोड़ है। मरता क्या न करता वाली स्थिति का आर्तनाद जो
अहंकार बन कर प्रकट होता है ठीक उस अवसर पर जब अहंकार या आत्माभिमान का
आधार समाप्त हो चुका है।
मुझे ऐसा लगता है कि इससे पहले अभिजात मुस्लिम समाज में भारतीय समाज से जुड़ने की आकांक्षा प्रबल थी क्योंकि वे समझते थे यह देश तो अपना है, या इस पर अधिकार करना है, इसे अपना बनाना है परन्तु इस बिन्दु पर यह बोध पैदा होता है कि अपना तो सब कुछ लुट रहा है! इसे इस्लाम से जोडना ठीक न होगा, परन्तु इसे विदेशी मूल पर गर्व करने वाले और अपने पारिवारिक दायरे में फारसी मिश्रित भाषा बोलने वाले तब भी अपने को दूसरों से अलग समझने या अपनी पहचान बनाए रखने के लिए चिन्तित रहे होंग। कारण अपने उसी लेख में इंशा अल्ला खां ने उर्दू का आदर्श बताते हुए केवल दिल्ली और लखनऊ के अमीर घरानों की भाषा को अनुकरणीय माना था और इसके बाद के उर्दू कवि उस आदर्श भाषा में लिखने और सोचने और अपने को विशेष और समाज से अलग समझने के लिए प्रयत्नशी ल होते हैं। यहां से एक आत्मग्लानि, आत्मदर्प, आत्मरक्षा की चिन्ता का मिला जुला मनोवैज्ञानिक पर्यावरण तैयार होता है जिसका उपयोग कंपनी के कूटविदों ने अपने ढंग से और खासी सफलता से किया।
यह मेरी मोटी समझ है, जिसमें मैं समझता हूं, उन्हेंं एक नई जमीन मिली जिसमें नए गुल खिलाए जा सकते थे जो आगे चल कर नफरत या घृणा का रूप ही क्यों न ले लें ।