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हनुमंत नाम था उसका, साथी सहपाठी। शिक्षक व अन्य सहपाठी छात्र, 'हणम्या' संबोधित किया करते। अपने नाम ही के अनुरूप बलिष्ठ व दीर्घ देहधारी। पढने-लिखने में, 'ढ' ! शिक्षकगण बडे प्रेम से उसका उपयोग करते, अपने हाथों की खुजली मिटाने हेतु। किसी शिक्षक का उसे पीटना, स्कूल का सबसे मनोरम प्रसंग होता था। पूरी स्कूल बडे चाव से हणम्या की पिटाई, पिटाई के दौरान की उसकी निर्विकार मुखमुद्रा, और पीटते पीटते शिक्षक की चढ रही सांसें देख मजे लेती। यह पठ्ठा, पिटते हुए भी मंद मंद मुस्कुरा रहा होता। अपने समय के बाक्सिंग चैंपियन, ठाकुर सर भी थक जाते इसकी ठुकाई करते हुए। कहते ;

"तुझे मारता हूँ तो हथेलियों में जलन होने लगती है, नालायक !! क्या करूँ तेरा ??"

और फिर, दो-तीन घूंसे पडने पर जब वह बिलबिला पडता, तब जाकर चैन आता ठाकुर सर को। यह 1971-76 के बीच का समय काल था। शिक्षकों द्वारा पिटाई, अपराध की श्रेणी में न आती थी। शिक्षक, स्नेह भी रखते उस पर। उस जैसा बलिष्ठ व कसरती शरीर बनाने के लिए, उदाहरण दिया करते। फुटबॉल का अच्छा खिलाड़ी भी था वह, स्कूल की टीम का कप्तान। हम बच्चों में उसकी लोकप्रियता के अपने कारण थे। उसके होते किसी की मजाल न थी, हमें आंख दिखाने की।

यह बात 1973-74 की है शायद। हम लोग सातवीं में थे। स्कूल में एक नए PTI आए, चेडे सर। वे यूनिवर्सिटी क्रिकेट खेल चुके थे। वय यही कोई पच्चीस या छब्बीस वर्ष। हम बच्चों की क्रिकेट के प्रति रुचि देख, स्कूल की टीम बनाने का उनका प्रस्ताव मान लिया गया और तदनुसार वे हमें स्थानीय 'स्वराज्य भवन' के मैदान पर ट्रेनिंग देने लगे। रोज शाम स्कूल के बाद हमारी क्लास लगती स्वराज्य भवन पर। हणम्या भी वहीं फुटबॉल खेल रहा होता।

"अबे, क्रिकेट क्या खेलते हो...फुटबॉल खेलो ! बडे स्टैमिना का खेल है यह..."

हमसे कहा करता वह। चेडे सर रोज उसे हम लोगों को चिढाते देखते, पर हणम्या की शरीरयष्ठि देख कुछ कहने का साहस न कर पाते। उनकी चुप्पी से उसे शह मिलती। पर एक दिन वे भी चिढ गए।

"बडा पेले बना फिरता है तू....हेड करना मालूम है न ? क्रिकेट की गेंद छोटी लगती है, क्यों ? मैं फेंकता हूँ इसे ऊपर, हेड करेगा ? देखते हैं, कितना मजबूत है तू....."

हम सब सिहर उठे। क्रिकेट की सीजन बॉल को सर पर झेलना... बाबा रे ! पर हणम्या भी आखिर हणम्या ही था। हमारे लाख समझाने के बावजूद न केवल चुनौती स्वीकार की, चेडे सर का गुस्सा भडकाने वाली बातें भी कर दी।

दोनों मैदान के बीच आ गए। चारों ओर घेरा बनाए बाकी बच्चे। अब तक के घटनाक्रम से चेडे सर के मस्तिष्क में adrenaline का स्त्राव पर्याप्त मात्रा में बढ चुका था। उन्होंने गेंद आकाश में उछाल दी, नीचे महावीर हनुमंत तैयार थे उसे हेड करने को। बाकी सबों के प्राण कंठ में....

लगभग सौ-डेढ़ सौ मीटर ऊपर से आती गेंद......ठॉक से सर पर ली हणम्या ने....दो पल शून्य भरी नजरों से हमें देखा और भरभराकर ढेर हो गया वह वीर। सब चिल्लाने लगे....चेडे सर मारे डर के, धुले हुए कागज़ से सफेद हो गए थे।

"अबे मर गए !! दौड़ कर रिक्शा ले आओ कोई....इसे अस्पताल ले जाना होगा.... नौकरी तो जाएगी ही पर कलंक लग जाएगा जीवन भर को..."

बुरी तरह से बौखला गए थे वे। अपनी हथेली से दबा रखा था उन्होंने हणम्या का सिर। मैं और दो साथी दौड़ पडे। नजदीक ही बस अड्डा था सो आसानी से मिल गई रिक्शा।

हम लोग रिक्शा लेकर पहुंचे तो देखा, वह उठ बैठा था। सिर पर बडा सा गूमड उभर आया था उसके। खून-वून का नामों-निशां नहीं। चेहरे पर फीकी सी मुस्कान..... हम सबकी जान में जान आई.... और चेडे सर...मुख खुला का खुला था उनका....जैसे संसार का सबसे बडा अजूबा देख रहे हों.... !!!



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