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हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास - ४५

जब हम यह कहते हैं कि मध्यकाल में हिन्दुत्व के प्रति घृणा का सहारा नहीं लिया गया तो इसलिए कि खानपान के भेद बराव को छोड़ कर मुसलमानों मे हिन्दू मूल्यों के प्रति सम्मान भाव था। यहां तक कि जातिभेद और सती प्रथा जैसी बुराइयों को भी वे आदर की दृष्टि से देखते थे। यह उनका धार्मिक जुनून था जिसके लिए उन्होंने सभी समाजों में बलप्रयोग और उत्पीड़न का सहारा लिया। तरीके दूसरे भी थे, पर उनके विस्तार में हम नहीं जाएंगे .

पुर्तगालियों ने अपने प्रचार में मुसलमानों को भी मात देने वाले बलप्रयोग, उत्पीड़न का सहारा लिया। जिस प्रतिरोध का सामना उन्हें करना पड़ा, उस बर्बरता के कारण ही जिस तरह वे हिंदुओं की नज़र में गिर गए, उन्हें हिन्दू मनोबल को यातना के बीच भी अडिग रहने के जैसे नमूनों का सामना करना पड़ा उससे उन्हें अपने तरीके पर पुनर्विचार करना पड़ा। जिस जेवियर्स को संत की उपाधि दी गई और जिसके नाम पर अनेक शिक्षण संस्थाएं भी देखने में आती हैं, उसको क्रूरता के जघन्यतम तरीके अपनाने के लिए जाना जाता है, परन्तु उसे हिन्दुओं के प्रतिरोध के सामने झुकना पड़ा और भारत से बाहर एक बदला हुआ सेंटजेवियर्स दक्षिणपूर्व एशिया की ओर रवाना हुआ।

पुर्तगालियों की समझ में पहली बार आया कि भारत में विचार की ताकत तलवार से अधिक है। वैचारिक ,हथियार तैयार करने के लिए पुराणों का अध्ययन सबसे पहले उन्होंने शुरू किया। सवर्ण पुर्तगालियों को कुजात समझते रहे । भारत में धर्मान्तरण के लिए बल प्रयोग व्यर्थ है, विचारों से ही उन्हें कायल करना अधिक प्रभावकारी है, यह बात उन्हें कुछ देर से समझ आई।

इतालवी धर्म प्रचारक अलबर्तो दि नोबिली मदुरै जाने से पहलेे गोवा में ठहरा था और वहीं उसे यह सीख मिली थी भारत को वैचारिक औजारों का प्रयोग करके अधिक आसानी से धर्मान्तरित किया जा सकता है। फिर तो वह मदुरै में बारह साल के एकान्तवास में हिन्दू जीवनशैली अपनाते हुए - मांस मदिरा से परहेज, जनेऊ, खडाऊं, कमंडल, तिलक, पगड़ी, लकुटी, अधोवस्त्र, उत्तरीय धारण करके ईसाइयों से उसी तरह का छूतछात का भाव रखता जैसे ब्राह्मण करते थे, और इस बीच धन के लोभ में गुपचुप ढंग से धर्मान्तरित ब्राह्मणों से जो समाज में ब्राह्मण के रूप् में मान्य थे, संस्कृत, तेलुगू, तमिल का आधिकारिक ज्ञान प्राप्त करने के बाद बाइबिल के नैतिक उपदेशों का संस्कृत में अनुवाद करके यह दावा करते हुए सार्वजनिक मंच पर आया कि वह ब्राह्मण है । वेदों का लोप हो गया तो विष्णु ने मीनावतार धारण कर उनका उद्धार तो किया था। चार वेदों का उद्धार तो उन्होंने कर लिया था पर पांचवा वेद समुद्र पार ही रह गया था, उसे लेकर मैं आया हूं।

पांचवे वेद का यही पाठ था जिसका पता किसी सूरत से वाल्तेयर को चला तो वह यह सोच कर बहुत प्रभावित हुआ था कि भारतीय वेदों में तो बहुत कुछ वे ही बाते हैं जो हमारे बाइबिल में है। मैक्डनल ने अपने संस्कृत इतिहास में इसे ब्राह्मणों द्वारा जालसाजी बताया था जो या तो सोच समझ कर फरेब है या जानकारी की कमी के कारण। जो भी हो, अब हथियार के स्थान पर फरेब को हथियार बनाया गया और यह फरेब किसी न किसी रूप् में भारत में ईसाइयत के प्रचार में आज अधिक गर्हित रूप् में विद्यमान है।

भारत में बल प्रयोग बेकार है यह शिक्षा उसके बाद सभी ने ग्रहण की। एंग्लिकन चर्च के ईसाई भी यह पाठ तो सीखने पर विवश थे ही। परन्तु कंपनी के द्वारा उनके धर्मान्तरण की गतिविधियों पर रोक लगाने के कारण हो, या अफीम का असर प्रचार के आवेश में घुस आने के कारण, इन ईसाइयों ने हिन्दुत्व के प्रति उस तरह घृणा को हथियार नहीं बनाया था जैसा चाल्र्स ग्रांट के बाद के ईसाइयों ने जो आज तक करुणा और घृणा का ऐसा घोल तैयार करते हैं कि हिन्दुत्व के प्रति घृणा प्रबुद्ध कहाने को लालायित हिन्दुओं के लिए भी एक श्लाघ्य आकांक्षा बन चुकी है।

इसकी उचित विस्तार से चर्चा हम सबसे बाद में करेंगे, यहां यह उल्लेख इसलिए करना पड़ा कि हमारे एक मित्र ने यह मत प्रकट किया था कि ईसाइयत इस्लाम से अधिक सदाशय थी और है, और वह उन बर्बर तरीकों को अपना नहीं सकी। मैं केवल यह निवेदन करने के लिए इस इतर दिशा में मुड़ गया कि इस्लाम ने क्रूरता का पाठ ईसाइयत से सीखा था और किसी भी चरण पर उसने उतनी जघन्य हिंसा और विनाश का सहारा नहीं लिया जितना पोपतन्त्र ने लिया था जिसे मैं ईसाइयत के उस सन्देश से भटका हुआ मानता हूं जो ईसा के उपदेशों में है। बाकी सारा ईसाई पुराण है और पोपतन्त्र का अंग है, बहुत बाद में रचा गया है और इसका कुछ अंश छठी शताब्दी तक आता है जो इस्लाम के जन्म का समवर्ती हो जाता है। यहां इतना ही कि ईसाइयत का चरित्र इस्लाम से भी अधिक गर्हित है, पोपतन्त्र इस्लाम से अधिक पिछड़ा है और इसके बावजूद वह अपनी कूटनीतिक चातुरी से अपनी घृणित योजनाओं के लिए इस्लाम को सह अपराधी और फिर मुख्य अपराधी और अन्ततः एकमात्र अपराधी सिद्ध करने में सफल हो रहा है।

मैं चाहता हूं कि हम स्वयं सूचनाएं जुटाएं, स्वयं व्याख्या करें, पश्चिमी प्रचारतन्त्र से बचे और अपने स्तर पर सावधान रहें । कारण कोई कल्पनाजीवी ही उन प्रवृत्तियों से गुदगुदी अनुभव कर सकता है जिसके कारण भारत में स्वयं मुसलमानों के अनुसार जनसंख्या का अनुपात बदला है, जहां संतुलन हिन्दुओं के विपरीत हो गया है वहां हिन्दुओं का सम्मान से जीना असंभव बना दिया गया है और जिन मुद्दों पर कायदे का चुटकुला तक नहीं बन सकता उनको राष्ट्रीय संकट बना कर पेश किया जाता रहा है जबकि उनको सामाजिक न्याय और औचित्य के आधार पर भी सही नहीं ठहराया जा सकता।

आज की पोस्ट में मैं उस संकट के गहराने का चित्रण करना चाहता था जिनमें अंग्रेजो की दहशत ने मुसलमानों के नेता का इस्तेमाल करके अपना संकट मुसलमानों के सर डाल दिया और वह भी तब जब उसे जल्ल तू जलाल तू आई बला को टाल तू तक कहने नहीं आया था।

मैं तीन गलतफहमियों को दूर करना चाहता हूं जो आधुनिक प्रचारतन्त्र द्वारा पैदा की गई हैं और प्रचारतन्त्र हमारे हाथ में नहीं है इसलिए उस पर प्रकट या परोक्ष उन लोगों का अधिकार है जो उसे अपने ढंग से विकसित कर सकते हैं और अपने सूचनातंत्र के दबाव में दूसरे समाचार माध्यमों और विचार माध्यमों को ले सकते हैं, और दूसरे उनके नियंत्रण में हैं जो पैसे के लिए अपनी अन्तरात्मा और अपनी मां को भी बेच सकते हैं।

यह न समझें कि ये आज पैदा हुए हैं, ये पहले से थे, और किसी ने ठीक ही कहा था कि भारत के योद्धा भी भाड़े के योद्धा थे, उनमें अपने देश, जाति और धर्म का सम्मान न था जिसके लिए किसी दूसरे देश का आदमी अपने प्राण दे देता है पर समझौता नहीं करता । यदि ऐसा न होता तो हिन्दू राजा मुसलमानों का सिपहसालार बन कर हिन्दुओं को लूटता, अपमानित करता और लूट का माल मेरा, जीता हुआ इलाका बादशाह का दहाड़ता हुआ अपना उपयोग करने वालों की नजर में सवाई राजा न बन जाता।

हमारी सबसे बड़ी समस्या सांप्रदायिकता की नहीं, राष्ट्रीय निष्ठा के अभाव की है जिसको जाग्रत करने के सही प्रयास नहीं किए गए, इसलिए हमे आंख के सामने अपना दुशमन दिखाई देता है जो अपना भाई है, पर उसे रोबोट की तरह इस्तेमाल करने वाला दिखाई नहीं देता। अक्ल इतनी कम है कि मैं अपने मित्रों के बीच भी यह सोच पैदा नहीं कर सकता, प्रयत्न जारी रहेगा और वही हमारे वश में है। परन्तु आज में अंग्रेजों में बढ़ती जिस आशका का जो दहशत का रूप लेने लगी थी, चर्चा करना चाहते था वह तो रह ही गया।

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