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इसके पहले जो डिवायडर पीर वाली पोस्ट थी (डिवायडर पीर की कथा) उसपर कई मित्रों ने कमेंट्स में बताया कि उन्होने भी अपने शहरों में ऐसे मौके के मजार देखे हैं । ‘मौके के मजार’ कहने का अर्थ तो आप समझ ही गए होंगे, ऐसी हर जगह की एक strategic location होती है जहां से दंगे के समय काफी कुछ संचालित किया जा सके । आप अगर देखें तो हर मस्जिद हमेशा ऐसे लोकेशन पर ही बंधी पाएंगे, पुलिस स्टेशन का भी लोकेशन उतना बढ़िया नहीं होता। चाहिए तो गूगल मॅप में देख लीजिएगा, कम से कम अब तो समझ लीजिये इनकी सोच जो हमेशा एक लॉन्ग टर्म रणनीति ही होती है ।

मजारों की बात करें तो कुछ बातें समझनी चाहिए । पता कीजिये ये मजारे कितनी पुरानी हैं । किसकी है, उस व्यक्ति का क्या इतिहास था । और एक बात जान लीजिये । आम तौर पर व्यक्ति कब्रिस्तान में ही दफनाया जाता है । क्या यह कब्र इतनी पुरानी है कि वह इलाका कभी कब्रिस्तान हुआ करता था और नगर विकास में कब्रें हटाई गई, बस यही छोड़ी गई ? ऐसे अक्सर नहीं होता, भारत के मुसलमान अपने हकों को लेकर ज्यादा आग्रही हैं। कर्तव्यों की बात नहीं, वे केवल दीन के प्रति फर्ज मानते हैं, मुल्क के प्रति कम ।

पीर की ख़ानक़ाह या खानगाह कहें तो कोई पीर शहर के गैर मुस्लिम आबादी में बसता है या पुराने मुसलमान मोहल्ले में ? आज भी कई मुसलमान हैं तो सिद्धियाँ अवगत होने का दावा करते हैं और काफी चेले -मुरीद -चाहनेवाले पालते हैं । कहाँ रहते हैं, आप को मुस्लिम मोहल्ले के बाहर तो नहीं मिलेंगे । तो दफन होने ही यह कौन पीर आ जाते हैं गैर मुस्लिम मोहल्लों में वो भी मौके की जगहों पर ?

असल बात यह है कि अक्सर यह कब्रें, जमीन पर कब्जा करने का जरिया ही होता है । फिर इनके आड़ में काफी कुछ होता है जो कभी कभी सुर्खियों में भी आते रहता है । बनारस जा रहा था तो शायद – याद नहीं – जबलपुर स्टेशन के बाहर - एक मजार देखी । जमीन से ऊपर है, ट्रेन ने गति पकड़ी थी तो मोबाइल से तस्वीर ले नहीं पाया । इतनी ऊंचाई पर हवा में कौन दफन हुआ भाई ?

अगर ऐसी “मौका पर मजार” आपने भी देखी है तो जरा जानकारी लीजिये, फोटो भी लीजिये । आजकल जीपीएस सुलभ है, जगह के जीपीएस coordinates भी लीजिये । शहर, एरिया, पिन कोड़ और जानकारी, जैसे कितना पुराना है आदि जमा कर लीजिये, एक साइट बनाकर वहाँ डालेंगे ताकि सब के लिए इस षडयंत्र का एक संदर्भ रहेगा । “इंशाल्लाह” :v कैंसर का कानूनी इलाज भी कर पाएंगे ।


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