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अधूरा प्यार... भाग-2

पिछला भाग - 1 यहाँ पढ़ें

उस पहली मुलाकात के बाद मै मानो हवाओ के झूलो मे झूलता गद्दी वापस लौटा । साल्टलेक से बडा बजार तक के सफर मे उन दिनो लोकल बस मे तकरीबन एक घंटा लगता था। खचाखच भरी बस मे भी मै मानो मुझमे नही था...। न तो भरी बस की असुविधाजनक हाल का पता चल रहा था...और न ही उल्टाडांगा से पोस्ता तक के जाम का..ll मै तो रेलिंग पकडे उन दो घंटो को जी रहा था जब कायनात ने कुछ हसीन रंग मेरी जिंदगी मे भर दिये थे...

फिर शुरू हुआ दो अल्हड उम्र के दिलो का एक दूसरे के लिए धडकने का दौर...।। इसमे बचपना भी था ...भोलापन भी ....बेवकूफिया भी ..और उस दौर के सिनेमाई प्रेम की मासूम नकल भी..ll जो पहले फोन पर दो चार दिनो मे एक बार बात होती थी ...एक दिनो मे चार पांच बार होने लगी । कालेज से तीन बजे वापस आता था ...तबतक भैया गद्दी पर आ चुके होते थे। और जब तक वो शाम को 7 8 बजे घर नही चले जाते...मुझे वो यमराज की तरह दिखते थे...। गद्दी की कारोबारी गतिविधियां 6 बजे तक खत्म हो जाती थी ...और इसके बाद भैया का वहां गुजारा हुआ एक एक मिनट भारी लगता था । एक एक पल घंटो की तरह गुजरता था ...और जैसे ही भैया जाते...मै लपककर फोन पर...!!

संयोग कुछ ऐसा था कि मनीषा के घर मे उसका अपना अलग कमरा था और उसके कमरे मे भी फोन का एक्सटेंशन था । रात दस ग्यारह के बाद जब उसके घरवाले सो जाते...वो बाहर का कनेक्शन निकाल देती थी। और इधर मै...गद्दी के सबसे कोनेवाली साईड पकड लेता था ...और फिर...फोन पर घंटो बाते..!! साहबान..शायद आपको यकीन न हो...कई बार तो सुबह होने तक बाते की। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि हमने फोन तब रखा जब उसकी मम्मी उसे "जगाने" के लिए उसका दरवाजा नाॅक करती थी सुबह सुबह..ll

ऐसी कितनी ही राते फोन पर फुसफुसाहट के साथ बात करते गुजरी । फिर दिन मे कालेज मे पीरीयड के दौरान नींद आती..ll एक तो बंगाली प्रोफेसरो की भाषा वैसे ही कम पल्ले पडती थी और ऊपर से रतजगे का सुरूर..ll मगर खैर...बनानेवाले शक्ल चाहे अच्छी नही दी थी..मगर जेहनी कूवत तसल्लीबख्श ही बख्शी थी। इसलिए पढ़ाई का हर्ज नही हुआ ।

कुछ हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि बताऊ..ll एक सुखद संयोग तो ये था कि वो भी हमारी तरह मारवाडी थे। इसलिए हमारी शादी मे कम से कम जाति समस्या तो नही आनेवेली थी। मगर हम दोनो की फैमिली मे मूल अंतर ये था कि मेरा परिवार पुशतैनी सेठोवाला... परंपरागत मान्यताओ वाला था जहां पैसो को रातदिन बढाने की जद्दोजहद होती है। हैसियत होते हुए भी खर्च कम से कम करने पर जोर...।। वहीं वो लोग नवधनाढ्य थे ..।। नया नया धन आया था सो शानो-शौकत अधिक थी । खुले हाथो से पैसा खर्च करते थे। उस जमाने मे भी उनके घर के हर कमरे मे एसी था..नई मारूति वैन थी ...और उसके भाई के पास हीरो होडा स्लीक थी...ll उसके पिता pneumatic tools के manufacturer थे...ll

मै उन दिनो तत्कालीन आधुनिक रहन सहन से दूर रहनेवाला लडका था। अंग्रेजी बोलनी नही आती थी ...बडे होटलो मे घुसने से झिझकता था ..छुरी कांटे से खाना नही आता था ।सोशल क्लब कल्चर से कोई नाता नही था..ll जबकि वो लोग अक्सर होटलिंग करते थे...उसके पिता लायंस क्लब के मेंबर थे...ll लायंस क्लब द्वारा आयोजित कई प्रोग्रामो मे मनीषा ने मुझे बुलाया था...इन्ट्री पास देकर। वहां ...बडे लोगो की दुनिया मे मै एक सीधा सा लडका...जेब मे सौ पचास रूपये लिए ...खुद को मिसफिट पाता था । मगर...मनीषा ने कभी मुझे ये नही जताया कि उसकी दुनिया और मेरी दुनिया मे कोई अंतर है । या मै उसके काबिल नही ...ll पता नही क्या भा गया उसे मुझमे...!!!

मनीषा...ll उसके रंगरूप का वर्णन करू तो शायद एक मासूम प्रेमी की तरह लंबी लंबी शायरी कर सकता हू। खूबसूरत तो वो बहुत थी ...हलांकि मेरी नजर मे तो कायनात की हसीनतरीन लडकी थी ।। उसकी सूरत आयशा जुल्का से बहुत मिलती थी...ll कुदरती खूबसूरती के साथ ...एक सुंदर दिल की मलिका होने का असर उसके चेहरे पर साफ अयां होता था। खामोश भी रहती थी तो यू लगता मानो हौले से मुस्कूरा रही हो ...

खैर ....कुछ दिनो फोन पर बाते करने के बाद ये हाल हो गया था कि मिलना जरूरी लगने लगा । अब ये कैसे हो..? उसका स्कूल ...मेरा कालेज ।। स्कूल के बाद उसके घरवालो का पहरा और कालेज के बाद मेरे ऊपर भैया की नजर..ll ऊपर से बडा बजार और सेल्टलेक के बीच की लंबी दूरी...lll अगले दो तीन महीने मे हमने दो तीन मुलाकाते निको पार्क मे जरूर की ...जहां वो स्कूल बंक करके आई थी और मै कालेज बंक करके...मगर न तो ये रेग्युलर संभव था और न ही सेफ..ll आखिर इसका उपाय भी मैने खोजा ।हमारा फ्लैट भी साल्टलेक के BD Block मे था । मैने भैया से कहा कि रोज रोज बाहर खाना मुझे सूट नही कर रहा था सो मै भी रोज रात को घर चला करूगा...और वही से कालेज चला जाऊगा । भैया को भला क्या ऐतराज होता...!! उनका मारवाडी मन तो खुश हुआ कि चलो रोज बाहर खाने का खर्च बच रहा था । उनको तो गुमान ही नही था कि भाई अब "बच्चा" नही रहा था।

तो साहबान...मै रोज भैया के साथ रात को घर जाने लगा । और मनीषा के साथ रोज मुलाकात का बेहतरीन बहाना भी ढूंढ लिया । उसके घर GC ब्लोक और मेरे घर BD ब्लोक के दरम्यान EC ब्लोक पडता था । उसी EC ब्लोक के राउंड पर अलसुबह मिलने का सिलसिला बनाया । मै और वो दोनो morning walk के बहाने घर से निकलते और नियत स्थान पर रोज मुलाकात करते। सुबह साढे पांच का समय फिक्स था। दस पांच मिनट हममे मे कोई लेट सबेर हो जाता तो वही एक दूसरे का इंतजार कर लेता। साल्टलेक उन दिनो कलकत्ते की सघन आबादी से हटकर एक नया बसा आवासीय इलाका था । सुबह सुबह सडके वीरान होती थी ...कालोनियो के पार्क मे इक्का दुक्का लोग ही दिखते थे । हम दोनो साथ साथ वीरान सडको पर घूमते टहलते ...कभी पार्क की बेंच पर बैठते तो कभी घास पर। वो अक्सर घर से कभी सैडविच तो कभी पराठे और अचार ले आती थी जिसे हम दोनो मिलकर खा लेते ...बीच बीच मे एक दूसरे को खिलाते...कुछ कौर आधे आधे खाते। मतलब ये कि दीन दुनिया से भूला... हर सुबह एक हंसो का मासूम जोडा अपनी नई दुनिया बसाता था जिसमे सिर्फ सपने थे ...हसीन और मासूम सपने । सात बजे हम विदा लेकर अपने अपने घर चले जाते ...अगले दिन फिर मिलने के लिए। उन दिनो ऐसा लगता था कि ये सिलसिला रहती दुनिया तक यू ही चलनेवाला है ....मगर इसे कभी तो खत्म होना ही था ...ll

उन दिनो मै मानो सम्मोहन की दुनिया मे रहा करता था । सारे दिन एक सुरूर ...एक नशा सा छाया रहता था । मुझे उनदिनो ही डायरी लिखने का शौक चढा। रोज के अनुभवो को डायरी मे लिखता था। कभी कभी कुछ नही सूझता तो सारा पन्ना मनीषा मनीषा लिखकर भर देता। हर वक्त सोचता कि क्या करूं ....ऐसा क्या करू कि मुझे यकीन हो कि मुझे प्यार हो गया है। इसी दौरान वैलेंटाइन डे आया । उस जमाने मे आर्चीज के कार्ड्स का बडा चलन था। नये साल...दीवाली वगैरह पर ये कार्ड्स ही लिये दिये जाते थे। मैने भी उसे देने के लिए एक बडा सा कार्ड खरीदा। और उस कार्ड पर love message लिखने लिए जो तरीका मैने आजमाया ....वो आज याद करता हू तो खुद सिहर जाता हू। मैने ब्लेड से अपनी बांयी हथेली काटकर तीन चार बार M लिखा और खून मे तर्जनी डुबाकर कार्ड पर I LOVE YOU ..लिख दिया।

हलांकि उसके पूछने पर मैने बता दिया जिसकी वजह से वो बेहद खफा हुई थी । आपको शायद यकीन न हो मगर ये सच है मेरे इस अहमकाना कृत्य के जवाब मे उसने भी अगले दिन अपनी हथेली पर ब्लेड से काटकर S लिख लिया था ...जिसे देखकर मैने उसे जोर का थप्पड़ मारा था।

अगले दो ढाई साल ये प्यार यू ही परवान चढता रहा। इस दौरान मनमुटाव भी हुए ...झगडे भी ...रूठना मनाना भी। कालांतर मे उसके घरवालो को भी इस लव स्टोरी का पता चल गया और मेरे घरवालो को भी ...

बहारो का मौसम बस खत्म होनेवाला था ।

खिजां आने को तैयार थी ...

(बाकी फिर कभी...अभी जरा उस दौर को फिर से जी लू..)

आगे का यहाँ पढ़ें - मेरा अधूरा प्यार मेरी यादें - अंतिम-भाग

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