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आक्रमण के हथियार बदल गए हैं-13

''कोई भी जीवात्मा अपने मूल में न तो स्त्री है न पुरुष।यह एक संस्कार है।, ... ''ब्रम्हसूत्र,

"किसी भी मनुष्य की लैंगिकता की मात्रा और मूल-प्रकृति उसकी आत्मा के ध्वजशीर्ष तक ही पहुंचती है।, .... नीत्शे।

शायद आपमें से किसी को यह बात पसंद न आये लेकिन जूलिया राबर्ट्स,केट-विंसलेट,एंजेलिना जाली या सलमा हयाक,चार्लीज थेरॉन,एम्म्मा स्टोन,नतालिया पोर्टमैन,मैरियन कोटिलार्ड, ओल्विया वाईल्ड,जेसिका अल्वा, स्कारलेट जानसन,मेगन फॉक्स,मिला कुनिस ,हेल बेरी आदि मेरी फेवरिट अभिनेत्रियां रही हैं।आज भी उन्ही को मैं सर्वाधिक् पसन्द करता हूं।वैसे तो फोटो-वोटो मैं नही लगाता लेकिन अगर लगाना पड़ा तो इन्हीं में से किसी की लगाऊंगा।एक दिन मैं बैठे-बैठे खुद पर सोचने लगा इनमे से तो किसी को मैं ने पास से देखा भी नही है।न कभी देखने या पास जाने की संभावना है।फिर उन्हें लेकर इतना आकर्षण क्यों है??अचानक दिमाग में पटाखा फटा!
हमारे सौंदर्य का पैमाना बदल दिया गया है।मांसलता,कमनीयता,रंग-सन्तुलन और फीगर,बनावट,चिकनाई, 32-28-36 एक नया मानक स्थापित हो चुका है।वे वाकई धीमी गति से हमारी समझ में बदलाव ला रहे है।उन्होंने फीगर कांशस पैदा कर दिया है।खुले शब्दो में लड़के-लड़कियां खुबसुरत(व्यूटीफुल) के लिए 'सेक्सी,शब्द प्रयोग करने लगे है,छोटे-छोटे बच्चे भी।सरेआम।मतलब अब औरत के सौंदर्य का पैमाना सामान्य सनातन सोच के जस्ट उल्टा,कमनीयता की तरफ बढ़ चला है।मुम्बई और साउथ की फिल्म इंडस्टी भी उस हथियार का शिकार बन चुकी है।1990 के बाद मुम्बइया फिल्मे भी हीरोइनों को उसी सांचे में ला रही है।यह आज से 30 साल पहले तक नही था।एक जमाने में मुम्बई/साउथ की नायिकाएं कलाबेस्ड थी न की 'सेक्स-इंस्ट्रूमेंट,के तौर पर।उनकी पहचान और अपील अभिनय एवं कला थी।उस समय स्वर,मुखड़ा,होठ,नाक-कान,बाल,माथा,आँखे,चाल-ढाल,कोमलता,भाव-सम्प्रेषण,मुख-मुद्रा,स्वर के उतार-चढ़ाव,और व्यक्तित्व के पांच आयाम(वाणी,विद्या,विनय,विचार)वाह्य रूप होते थे।स्वयं के विचार सुंदरता का पैमाना थे।युगों पहले कालिदास ने कहा था।"लज्जा स्त्री का वास्तविक सौंदर्य है।आज ध्यान से देखिये पुराने-पहनावे का आदमी 'पोंगा और पिछड़ा लगता है।जबकि प्राचीन ग्रन्थों में उस पहनावे पर टनों काव्य लिखा गया है।वाल्मीकि और महाभारत में देवी-देवताओं के जेवरातों,शश्त्रो के वर्णन से भरा पड़ा है।अचानक कोई सामने आ जाये तो जोकर ही लगेगा-नौटँकी वाला लगेगा।स्मार्टनेस के नाम पर अधनंगा-पन है,यह जो स्वतंत्रता के नाम पर गंदगी है इसे आंतरिक जगत में परिवर्तन का हथकंडा समझिये।बहुत सारी लड़कियां उनके पैमाने पर सुंदर लगने को तरह-तरह के मार्केट प्रोडक्ट अपनाती है,अवसाद में रहती हैं।उन्हें लगता है उनका फीगर बिगड़ गया है,वे सुंदर नही लग रही है,जबकि वे सुंदर है।प्रकृति पूर्ण-रूपेण खुबसुरत है क्योंकि परम्-चेतना उसको माध्यम बनाती है।वह हमेशा सुंदर होती हैं।उम्र के हर स्टेज पर क्योकि वे सृजना है।परन्तु चतुर सुजानो ने इस पर बड़ा अटैक किया है वे कुछ मार-रही है।स्टार अपीली,एक्टरिंग,एक्सप्रेसन,हाट,फ़ीगरिंग अवचेतन से कुछ छीन रही है।इसे भांपिये।यह सबसे खतरनाक हथियार है हिंदू चेतना को नष्ट करने का।बाजार एक माध्यम बनाया गया।लाभ और व्यवसाय की मशीनरी कारक-तत्त्व की भूमिका में आई।

इस सोच-इस विचार,इस वैचारिक दर्शन आदि ने तो इम्पोज़ीशन की भूमि तैयार किया, किंतु कुछ मुम्बइया फिल्मो ने इसमें पौध-रोपण,खाद-पानी टेम्परेचर दिया।यह 1986 के बाद की बात है।आसपास से दिखने वाली सामान्य सड़क-छाप शकल-सूरत के मुस्लिम नायक लेकर(उद्देश्य समझिये)कुछ फिल्में बनाई गई।उन फिल्मो ने भारतीय युवतियों में नई मनोवृत्ति को जन्म दिया।यह केवल लाभ-हानि का फ़िल्मी गेम बस नही था।बल्कि मजहबी युद्ध के मैदान में बिछाई गई नई बिसात थी।खुली थाल को खाने का पैगाम दिया जा रहा था।सनातनी सेकुलरिता के उन्माद में पहचान ही नही पाये 1988,कयामत से कयामत तक नाम की एक फिल्म,1990 'मैं ने प्यार किया,और फिर दिवाना,कुछ-कुछ होता है,दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे,परदेशी,आदि वह फिल्मे है जिन्होंने लव-जेहाद की पृष्ठ-भूमि तैयार की।निदेशक,निर्माता,नायक,और नायिका आप खुद पता करिये-नेट पर ही हैं।मैं केवल इतना कहूंगा आगे की पूरी पत्रकारिता,ग्लैमर,शैली,और टेस्ट इसी को केंद्रित कर बनती चली गईं।तथ्य यह भी है मौलिक लेखन और साहित्य इस तरफ नही जा रहा था।तो क्या यह सुनियोजित था।आप खुद आंकलन करिये।स्त्रियों के रहन-सहन-सोच,आचरण आदि पर हो रहे हमले गहरे ढंग से सोची-समझी चाल का नतीजा है।उन्होंने फिल्में-विज्ञापन-सीरीयल-नाचगाने-सम्प्रेषण-सूचनाये ऐसी डिजाइन की है कि अवचेतन पर असर पड़े।उन्होंने उपन्यास ऐसे लिखे कि दिमाग और व्यवहार पर असर पड़े।उन्होंने ऐसे ढंग से पहनावे पेश किए कि हमारी स्टाइल पर असर पड़े।उन्होंने उसे एक वस्तु में बदलने की रणनीति बनाई थी।पूरे यूरोप में ,अमेरिका में, आस्ट्रेलिया ,और अन्य सेमेटिक संस्कृतियों में, स्त्रियों के प्रति एक वासनात्मक सोच बना दी गई है।वह अच्छी खिलाड़ी,लेखक,बिजनेसमैन,कलाकार,पत्रकार,कार्मिक,अधिकारी,या सिपाही,सैनिक भी तभी लगती है जब उनको सौंदर्य के पैमाने पर आंक लिया जाता है।यह जहरीली सोच समाज पर हावी है। एक वस्तु-ऑब्जेक्ट-सब्जेक्ट जैसी धारणा हैं।कहीं न कही यह धारणा इसमें बदल जाती है उनका उपयोग सजावटी(फैब्रिकेटेड)वस्तु जैसे ही होना चाहिए इसलिए वह एक ही चीज बना दी जाती है आकर्षण की चीज बजाए की एक मानवीय चेतना के।

भारतीय समाज युगों से उनको एक चेतना के रूप में लेता रहा है। गार्गी,अपाला,घोषा,सत्य,सावित्री,सीता,प्रज्ञा,मेधा,लोपामुद्रा जैसे हजारों नाम है जो समाज में पुरुषों से कंधा मिलाकर चलती थी।भारतीय समाज उनको मां के तौर पर, पुत्री के तौर पर, बहन के तौर पर, और बड़े के तौर पर, पूज्यनीय के तौर पर ,सम्मान देता रहा है।दादी-नानी-चाची-मौसी-ताई आदि-आदि।

नाटक तो अब शुरू हुआ है।इधर का अंग्रेजी,व्रेस्टर्न,सामी प्रभाव से यह बदलाव आया है।फिल्में,उपन्यास, कहानियां और बहुत सारा लेखन इधर की चीजें,इधर के 200 सालों में उन्होंने भारतीय समाज पर प्रभाव छोड़ा है इस लेखन का क्या है।स्कोर करके जबरदस्ती अपने जीवन में घुसाना है।उसको उसके सब्जेक्टिव सेक्स मैटर के अंतर्गत स्त्री को एक वस्तु में बदल देता है ।एक ऐसी वस्तु जिसे पुरुष को पाना है।ढेरों सारी अवस्था में हिंदुस्तानी नहीं है।प्राचीन भारतीय समाज मानता है कि उनमे से कोई आपकी पत्नी हो सकती है।लेकिन पश्चिम आक्रांता हिंसा का क्षेत्र रहा है। वहां वह युद्ध करते थे और सारी दुनिया जानती है। युद्द व् दुश्मनी की कीमत औरते,बच्चे पूरी तरह चुकाते हैं।आप धीरे-धीरे यह सोच दिमागी संस्कार बन जाती है।

दुनिया का इतिहास देखें, इस्लाम में तो छठी सदी से युद्ध करते, और जीतने के बाद सब के सब सम्पत्तियां लूटते थे। फिर औरते-बच्चों पर टूट पढ़ते थे।मार्केट लगाए जाते 20-20 औरतें, 50-50 भी होते थे। बटवारा करते थे।बंटवारा बच्चों का, औरतों का, एक अजीब सी बात है। उनके मेले लगते थे ।वहां आज के पशु-मेले जैसा गुलाम,युवतियों,औरतो,बच्चो का बाजार लगता था। ऐसे ही वह बच्चों और औरतों का बाजार लगाते थे।सबसे बड़ा बाजार वह मिस्र में लगाते थे।,वह समरकंद में लगाते रहे, यहां तक की आधुनिक शहर लंदन में भी कभी वह औरतों और बच्चों का बाजार लगाते थे।, दुनिया भर से खरीददार आते थे और उनको खरीद के लिए जाते थे। गुलाम बनाकर यह हजारों साल तक होता रहा। तकरीबन 15 सोलह सौ सालो से तो उनकी ही प्रामाणिक इतिहास की किताबों में वर्णित है।औरतो-बच्चों का बाजार यह भारत में कही नहीं सुनेंगे या देखेंगे। ,प्राचीन भारत में कहीं कल्पना में भी नहीं देखेंगे, पूरे इतिहास में सारी प्राचीन किताबों में,किसी से कोई प्रमाण नहीं मिलेगा।,नारी के साथ किये पाप का परिमार्जन नही है।यहां शुरुआत से ही 'यंत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता, ही रहा है।
ऐसा कही नही है।यहां दासत्त्व और गुलामी का दूसरा अर्थ था।भारत में सामान्यतया एक पत्नी से अधिक सोचना भी पाप माना जाता है,हिन्दू हजारो साल से ऐसी ही सोच जीता आ रहा है,राम आदर्श है इस मामले में।सारे देवता भी जिनकी एक ही पत्नी होती है।केवल यही नही वही पत्नी-सात जन्म तक।वह कोई इमारत नही बनवाता।यह जरूरत तो उसे पड़ती है जिसकी पत्नी 14वी पत्नी, 18वी औलाद पैदा करते समय मर जाए।वही दुनिया को प्रेम की निशानी दिखाएग।उसे पहले से ही मालुम है। कि मैं प्रेम-व्रेम नही करता। जो प्रेम करता होगा उसे ढिढोरा पीटने की क्या जरूरत?वह जानता है प्यार आंतरिक अवस्था है।उसे जरूरत ही नही पड़ती है।क्योंकि वह सचमुच प्रेम करता है,उसी के साथ सारे बन्धनों से मुक्ति का जतन भी करता है।बिना पत्नी के धार्मिक कर्तव्य की मनाही है।आप अकेले धार्मिक-कर्तव्य नही कर सकते।पंडित ही नही मानेगा।धर्म के अनुसार वह दो-नही है।एक ही है। प्रेम का ऐसा समर्पण,ऐसा सिद्धांत,समस्त धरती पर आप कल्पना ही नही कर सकते। यह उनकी देन है जबर्दस्ती कब्जे वाली उनकी सोच से वह एक वस्तू में बदलती चली।यह 19वी शताब्दी के दूसरे दशक तक चला।हेग अदालत के फैसले के बाद उन्होंने माना कि औरतो में भी आत्मा होती है।एक किताब,मशहूर किताब तो आज भी कहती है कि एक पुरुष की आत्मा कई औरतो के बराबर होती है।वहां है मर्द-वादी सोच हमारे यहां नही।

पश्चिम तथा अरब की औरतों के प्रति यह सोच 5-5 पत्नियों की सोच, 72 हूरों की यह सोची औरतो को वस्तु में बदल डालती हैं।ज्यादा से ज्यादा औरतें चाहते हैं।दूनियां-जहान तो छोड़िए अपना ही घर असुरक्षित है।भाई-बाप और बड़ो का घर भी खेती समझता है।स्त्रियो से नजदीकी खूंन के रिश्तों को भी एक ही दृष्टि से देखने वाले समाज की सोच समझी जा सकती है।महिलाओं के प्रति वह समाज क्या दृष्टिकोण रखता होगा,कोई बहन नही,कोई बेटी नही,कोई माँ नही सब एक एलीमेन्ट है।पैदावार बढाने की खेती।आप उर्दू साहित्य देख कर दंग रह जाएंगे।80 प्रतिशत इन्ही बातो का जिक्र होता है।गोया और कुछ है ही नही।आफरीन-आफरीन।इसलिए उनके लेखन का टारगेट होती हैं।वे इसी प्लाट के इर्द-गिर्द कथा- उपन्यास रहते हैं,कहानियां रचते हैं,और बहुत सारा दिन जाया करते हैं,कविताये,नॉवल,उपन्यास,शेर,शायरी,गजल और बहुत सारे रोमांस से भरी यह गजल,कविताएं यह सब एक हथियार के तौर पर उपयोग होती हैं।सनातनी सखी सम्प्रदाय में परमात्मा के लिए स्त्री बन गए,दूसरी तरफ भौतिकता का चरम तो देखो खुदा को स्त्री बनाकर भोगने को तैयार हैं।सोच का अंतर।

ऐशले मांटेस्क्यू,द नेचुरल सुपरियारिटी आफ दी वुमन, पृष्ठ संख्या 54 पर लिखते हैं 'स्त्रियां अपनी भावनाओं को वह काम करने देती हैं जिनके लिए वे बनी है और इसीलिए मानसिक रूप से पुरुषों की अपेक्षा अधिक स्वस्थ रहती है,।उनके चिंतको ने बात पकड़ ली।
उनको पता है औरतें ज्यादा काल्पनिक और भावनात्मकत पवित्रता से भरी होती हैं।औरतें रचनात्मकता में ज्यादा दिमाग लगाती हैं।वे इस दुनियां को ज्यादा खुबसूरत बनाने पर सोचती हैं ,और अंदर तक विचार करती रहती हैं।वे दुनियां बनाने में सक्षम भी हैं क्योंकि वे घर चलाती हैं।पुरुषों से ज्यादा काम करती है।परंतु वे राजनीति समझने पर जोर नही देना चाहती।वे प्रकृति है इसलिए रचना उनका उनका स्वभाव है।बाल-बच्चे होने की जिम्मेदारी पूरी करते-करते नान-इंफार्मेटिव हो जाती हैं।इसीलिये आक्रांता योजना बनाकर उनके दिमाग का शिकार करते हैं। वह उनको एक शेप में ढालते हैं।लेखन से और यह उसी के इर्द-गिर्द सिमट जाता है। यह सबसे अपीली भी होता है सबसे बिकाऊ भी है।उन्होंने फिल्में, उन्होंने उपन्यास, उन्होंने कहानियां ,जो भी कुछ लिखे इन्हीं 3-4 बातों के इर्द-गिर्द लिखे। उनके पास और विषय नहीं है,लिखने के लिए।कई बार अंग्रेज और अमेरिकन तो कुछ और भी लिखते-दिखाते हैं। लेकिन आप अधिकतर अरबी विचारधारा के रचनाकारों के लोगों को देखेंगे कि वे अपनी कल्पनाशीलता और रचनाओं का 80 प्रतिशत हिस्सा इसी के इर्द-गिर्द समेटे है।हिंदुस्तान में मुस्लिम और कम्युनिस्ट रचनाकार इससे निकल ही नही पाते।बहुत कोशिश करके उसमें केवल 'द्वंद, एक टॉपिक है जो घुसा पाते हैं।उसी को केंद्रित कर वे कहानियां बनाते हैं,फिल्में बनाते हैं और द्वंद व् शोषण की नकारात्मक पर अपनी बात खत्म करते है।वैज्ञानिकता, आवश्यकता,रहस्य,रोमांच,थ्रिल,विकास,और आविष्कार आदि के नए आयाम टोटली गायब हो जाते है।

यह सुपरफीसियल कलाकार के तौर पर तैयार कर रहे हैं...और हावी माडर्न-आधुनिक चिंतक इसे ही गम्भीर जताने की कोशिश करते है।चारो तरफ से उन्होंने इतना शोर मचा रखा है कि आप उनके बनाये दिमागी जाल से निकलने के बारे में सोच भी न पाएंगे।असल में इण्डिया का वर्तमान फेमिनिज्म,कम्युनिज्म का ही एक एजेंट-फ़ार्म है। स्त्रियो की सशक्तिकरण की जगह वह एक प्रकार की उच्छश्रृंखलता का स्वरूप धारण कर चुका है।
तीन तलाक,हलाला,मेंहर,मुंताह,बुरका, पर बोलने की जगह मंदिरों में तेल चढाने के लिए संघर्ष करती हैं।उसका महिला सशक्तिकरण हिंदू-सनातन ब्यवस्था का विरोध भर रह गया है।वे चाहते हैं युवतियां और बालिकाएं इससे ज्यादा न सोचें।ज्यादा सोचने लगी तो उनके कोमल मन का शिकार कैसे करेंगे।संस्कृति का हमला उसी रास्ते सफल होता है न।करियर की पढाई-लिखाई चाहे जो होता हो पर मनोरंजन और दूसरी कला-वृत्तियां अवचेतन पर प्रभाव छोड़ती ही है।आज की लड़कियां उनका सीधा टारगेट है। उसी में से उपजता है लव जिहाद....और नकली क्रान्ति।आप को 'ब्रा, उतार फेको,वाली क्रान्ति का दौर याद है न?हमारे ही देश में हुआ था।उसे गुलामी का प्रतीक बताया जा रहा था।यह जो फेमिनिज्म है,इसको लेकर के 'जर्मन ग्रेयर, ने कई किताब लिखी है वह एक आस्ट्रेलियन कम्युनिष्ट थी।'दी ऑब्सटेकल रेस सेक्स;एंड डेस्टिनी;दी मैड वुमेंस अंडरक्लाथ्स,डैडी,आई हार्डली न्यू न्यूज; द चेंज, स्लिप शार्ट सिविल्स,द होल वूमेन,इन किताबो में उन्होंने स्त्री दृष्टिकोण से सम्बंधित सारी चीजों को नकारात्मक दृष्टिकोण से एनालिसिस करते हुए इस तरीके से सामने रखा है जैसे पूरी दुनियां औरतो के खिलाफ हो।उसके विरोध पर ही पुरुषों का जीवन टिका हो।उनके किताबो ने दुनिया भर के 'कम्युनिष्टों को एक बौद्धिक आधार, उपलब्ध करा दिया।उन्होंने इस बात को फैशन बनाना शुरू कर दिया कि औरतों को पुरुषों ने गुलाम बना रखा है अब उन्हें हर चीज से मुक्त हो जाना चाहिए।यह जर्मन ग्रेयर खुद भी कम्युनिस्ट पार्टी की एक लीडर जैसी थी।उन्होंने ऐसे बहुत सारे ऐसे तर्क खोज निकाले है जो मार्क्सवादी तर्को के करीबी है।वह बिलकुल साम्यवादी दृष्टिकोण से सिद्ध करती है की 'औरतों के खिलाफ पुरुष शुरूआत से ही साजिश करते थे।उनकी किताबे बड़े वीभत्स ढंग से स्त्री देह,उसके बाहरी आवरण,केश,बनावट,हड्डियों,फिजिकल अपीयरेन्स को लेकर विश्लेषित करती है।उसकी बौद्धिक क्षमता,उसकी मानसिकता, उसका व्यवहार, कार्यशैली, लिंग, के स्कोर को रुद्धकीय छवि,ऊर्जा,शिशु-अवस्था व दुरभि-संधि,पुरुषों-की मनोवैज्ञानिक लफ्फाजी, गालियां,दुख,विद्वेष,मिथक,परिवार,सुरक्षा पुरुष फंतासी, प्रेम,और विवाह का विश्लेषण किया है।उन्होने अपनी इस तुलनात्मक-विश्लेषणात्मक अध्ययन में महिलाओं को एक ऐसे वस्तु के रूप में प्रेजेंट कर दिया जिसके खिलाफ सारी दुनिया साजिश कर रही है। कम्युनिष्टों ने सारी दुनिया में इस किताब की बहुत चर्चा की और धीरे-धीरे इसे परिवर्तक रूप में एक्सेप्ट करा दिया गया।बाद में ढेरों नये लेखक भी आये जिन्होंने और भी ज्यादा नकारात्मक चित्रण किये।

दुनियां भर में आज इस तरह के नारीवाद-समर्थक बड़ी संख्या में हो गये है।बिना गहराई में उतरे वे नए लहजे में तर्क करते है।,और महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधो को नए ढंग से परिभाषित करते है।प्रायः यह परिभाषाएं निहायत नकारात्मक होती हैं समाज में वर्ग-संघर्ष की नई धारणा बनाती है।अगर इसे थोड़ा भी समझने की कोशिश करेंगे तो तुरन्त ध्यान में आ जाएगा वामी इस बार नये कलेवर में 'परिवार,संस्था पर जुटे हैं।भावुक और 'कमबुद्दियाँ, यह बात जान ही नही पाएंगी की इनके दूरगामी परिणाम होंगे।इतिहास से सीखिये और हमेशा याद रखिए साम्यवादी क्रान्ति की कीमत पुरखो की धरोहर और औरते ही चुकाती रही है।आपको 'कम्युनिष्ट चीन,के एक राष्ट्रपति का वह वाक्य भी याद होगा जिसमे उन्होंने निक्सन से अमेरिका को चीनी औरतो की बड़ी सप्लाई करने की बात कही थी।सोच देखिये।

वह दिमागी तौर पर शुरुआत में उस समय काम कर रहा होता है। देह के लिए, मन के लिए,और तात्कालिक आवष्यकताओं के लिए वह भौतिक खुराक तैयार करते हैं,इसके गोपनीय और दूरगामी उद्देश्य होते हैं।इस लेखन की मानसिकता समझने की जरूरत है।
प्रेम,मोहब्बत,रोमांस,वह एक ऐसे हथियार की तरह यूज़ करते हैं उनके आत्मा का शिकार कर सकें।भावुक,कोमल मन का शिकार ऑब्जेक्ट होता है इस तरह की कलाओं का,शिल्प का,लेखन का।

यह सब गजब तरीके से करते हैं।एक उम्र में यह बातें अपनी अभिव्यक्तियों के सहारे हमारे दिमाग में डालने में कामयाब होने हैं।वे लॉजिकल लगने लगते है।ऐसा लगने लगता हैकि इस प्रकार का प्रेम बड़ी जरूरी चीजें होती हैं।वही हमारे अस्तित्व-व्यक्तित्व की सम्पूर्णता का बोध कराती है।इस दैहिक प्रेम, को वे 'प्लूटानिक लव,कहने/जताने की कोशिश पर आ जाते है।यही बाते बौध्दिक लेबिल पर अपील करने लगती है।मूर्तिकला,चित्र कला लेखन कला, शिल्प कला,और नए-नए ढंग के फीचर भी,यहां तक कि एडवर्डटाइजिंग, डाकूमेंट्रीय और कार्टून-कैरेक्टर तक इसी के इर्द-गिर्द रखते हैं।संप्रेषण की किसी भी भारतीय कला पर नजर दौड़ाएंनृत्य,संगीत,मूर्ति,गायन,वादन,साहित्त्य,कविता,श्लोक,आदि किसी भी रचना में औरत की देह ऑब्जेक्ट नही मिलेगी।कुचिपुड़ी,,पांडवानी, भरतनाट्यम,मणिपुरी,ओडिसी, किसी भी नृत्य शैली में आपको भक्ति ही मिलेगी पुराण,शास्त्र,महाभारत,रामायण मिलेगा,सकारात्मकता मिलेगी न कि स्त्री-देह प्राप्ति की कामना भड़काती मिलेंगी।

वहीं जरा पश्चिमी दुनियां की डांस स्टाइल देख लें।समय मिले तो एकाग्र होकर लेडी-गागा,मेडोना,शकीरा, को सुन लीजिये।उनको नाचते देख लीजिए।,उनकी थिरकन,एक्टिंग,फीगर को सौंदर्य दिखाना/बताना शुरू करती है।...मन्तव्य तो समझ रहे न??पोयट्री,गायन,गीत,शेर,शायरी,सूफी सब उन्हें भोग लेना चाहती है..गोया वह निष्प्राण काम-वासना पूर्ति का साधन मात्र हों!आपको महसूस कराते हैं कि यह बहुत बहुत महत्वपूर्ण चीजें हैं। हमारे अंदर के लिए, हमारे अस्तित्व के विकास के लिए एक उपकरण के तौर पर काम करता है।हजारो साल के गुनाहों,दर्द और गुलामी को भुला देना चाहते हैं।अमूमन सेक्स और काम प्रकृति की सर्वाधिक अपीली चीज होती है।जीवन-जगत उसीसे चलता है। मानव मन,चाहे स्त्री हो या पुरुष उससे नजदीकी तौर पर जुड़ा होता है।त्यागा नही जा सकता।इसी अनिवार्यता की वजह से सेक्स को आज की दुनिया का सबसे बिकाऊ चीज बना दिया गया है।यह इकोनामी का 40 प्रतिशत हिस्सा कब्जा चुका है।बाजार पर कब्जे के बाद उसी के माध्यम धीरे-धीरे सनातनी समाज का हजारो साल पुराना समाज कैरेक्टर बदला जा रहा है।हिन्दू औरतो के जीने-सोचने-और आस्था का तरीका भी उसी के सहारे बदला जा रहा है।आप गौर से आस-पास की चीजों को देखे,इसकी लिस्ट बनाये दिखने लगेंगी।यह हथियार आपको हिन्दू रहते हुए भी हिन्दू नही रहने देगा।

स्त्री प्रकृति का रूप है,स्त्री चेतना का रूप है, स्त्री काल का भी रूप है।यही युग-युग से है।कोई मने शुरूआत में स्त्री के इर्द-गिर्द ही संपूर्ण संसार सिमटा हुआ था।परिवार की धारणा समाज की धारणा स्त्री के इर्द-गिर्द ही है।उसे ही प्रकृति चलाते भी आप देखेंगे।परिवार पुरुष का नहीं है।स्त्री के बच्चे हैं।उसके बच्चों का पालन पोषण पुरुष करता है।पूरी की पूरी प्रकृति औरत के द्वारा ही चलती है।पुरुष उसका ऑब्जेक्ट होता है।उसी की कृपा से सारे सुख आपको हासिल होते है।वह शक्ति है,ज्ञान-विद्या है और धन भी है।बेसिकली हिन्दू समाज का वैचारिक अधिस्थान 'कर्म और पुनर्जन्म,है।हिंदू समाज का कर्मो का आध्यात्मिक आधार तीन प्रकार के ऋण पर निर्भर हैं।गुरु ऋण,देव ऋण और पित्र ऋण।इसे चुकाए बगैर मुक्ति नही है।हालांकि जल देने का तो विधान है पर मातृ ऋण नहीं होते।क्योंकि मां का ऋण नही चुका है जा सकता है।अनंत काल तक के के लिए है।हिंदू समाज व्यवस्था अत्यंत प्राचीन काल से स्त्री के इर्द-गिर्द ही है।परिवार बनता रहा है। और औरतें ही परिवार चलाती है।

अब प्रकृति को ध्यान से देखें शेरनी को बच्चे होते हैं, शेरनी परिवार पालती है। मोरनी, चीटियां,हथिनी,चिड़िया,बाजिनी सारे जीव-जंतु,पक्षीयों में मादा का जीवन परिवार पालन के इर्द-गिर्द होता।नर तो केवल सहायक होता है इसीलिए उसे सुंदर बनाया गया है(देंखे कमेंट बॉक्स) ।प्रकृति मादा ही है।माँनव अलग है मानव पुरुष का परिवार होता है।मानव दुनिया में पुरुष का परिवार होता है।उसका नाम उसके बच्चों को दे दिया जाता है। संपत्ति,नाम,अहं,स्वभाव,गोत्र आदि उसका जीवन सिमट जाता है।कम्युनिस्टों ने इसको फेमिनियन रुप दे दिया।उन्होंने नई बात दे दी कि औरत शोषित है।सौ-पचास तर्क भी दे दिए।उनके इस गैर-जिम्मेदाराना सोच की कीमत दुनिया भर में लाखो परिवार चुकाते है(इस पर फिर कभी)बच्चे चुकाते है।जबकि ध्यान से गौर से देखें कि दोनों ही शोषित नहीं थे।

युगों पहले हिन्दू-पुरखो ने इसे समझ लिया।ऋषियों ने,मनीषियो ने इसको समझा।ठीक से समझा,कालातीत होकर,अंदर तक उतर कर पारिभाषित किया।''कोई फेमिनावाद नही है, परिवारिक बैलेंस है,संतुलन प्रकृति का,व्यक्ति का,मानव्-जीवन के इर्द-गिर्द सुख का,.स्त्री ही प्रकृति है,प्रकृति समर्पित होती है और पुरुष का पुरुषार्थ ही सम्पूर्णता है।इसलिए वह वामांगी है।बिस्मार्क और नेपोलियन के कथन के हजारो वर्ष पहले ही वे जानते थे..स्त्रियां ही राष्ट्र बनाती और बिगाडती है।मनुष्य जीवन को सम्पूर्णता देती हैं।अर्थ,धर्म,काम,मोक्ष,के पुरुषार्थ का।इसलिए ज्ञात 10 हजार साल के इतिहास में एक भी तलाक न मिलेगा-दिखेगा।हिन्दू तंत्र-शास्त्र तो स्त्री-देह को प्रकृति की सर्वोच्च अवस्था बताता है।रूद्रयामल तंत्र और शारदा-तिलक इस विषय के प्रतिष्ठित ग्रन्थ है।पुनर्जन्म की अवधारणा में 'स्त्री देह,प्रमोशन की अवस्था मानते है।कई प्राचीन तंत्र-पुस्तको में माना जाता है पुरुषों को जो सिद्धियां,निरन्तर जप-तप-साधना-अभ्यास से 30 सालो में हासिल होंगी स्त्री उसे केवल 3 साल के अभ्यास-मात्र से प्राप्त कर सकती है।शक्ति और ऊर्जा उसमे सतत-स्थापित रहती है।आज भी गाँवों में जहाँ सूचना-संस्कार और आधुनिकता का जहर नही पहुंचा है आपको औरतो की वही पोजिशन, वही सम्मान दिखेगी।बेटी पूरे गाँव की बेटी,बहन पूरे गांव् की बहन,माँ पूरे गाँव की माँ।अब वह दरक रहा है।उनका आशीर्वाद सदा फलदाई माना जाता है।त्रिशक्ति सन्तुलन है,अष्ट-मातृका,कन्या रूप में नौ रात्रिका,दस महाविद्या,सोढस देविका,चौसठ योगिन्या रूप में जगत नियंता है।भारत के किसी भी जाति, समुदाय,भूभाग में चले जाइए आपको एक कुल-देवी मिल जाएंगी।उनका आशीर्वाद लिए बगैर शादी-विवाह-या बड़ा अनुष्ठान न मिलेगा।औरतो के सेमेटिक सोच आप इसी से समझ लें कि एक भी पूजनीया देवि,आपको पश्चिम-अरेबिक मर्दवादी दुनियां में न दिखेगी..जबकि देवताओं-पैगम्बरों की कमी नही।कुल 20 पैगम्बर आये एक भी स्त्री रूप में नही आई।कम्युनिष्ट तो वैसे भी कही आस्था नही रखते।

यहां फीमेल-कन्या-भ्रूड़ हत्या,या बालिका दर की घटती संख्या पर बात नही करूँगा।इस पर रोज अच्छे लेख-विज्ञापन-डाक्यूमेंटरी बन रही है।सरकार भी अच्छा-खासा खर्च कर रही है।उसे दुनियां में लाये,बढाये-पढाये और समान अवसर देंना अच्छा है किंतु उस कन्या-भ्रूण के लिए सुंदर-सहज-सुरक्षित-सांस्कृतिक भारत बनाएं।मेरा मानना है कन्या-भ्रूण का मूल कारण दूसरा कुछ है।यह समस्या सोच-और जीवन शैली के बाई-प्रोडक्ट(उत्पाद)रूप से जन्म ले रही है।इस एक हजार साल में पैदा हुई नई सोच का नतीजा है ।इस पर गम्भीर-चिंतन और पालिसी बननी चाहिए।पहनावे-स्वतन्त्रता और खुले-पन से भी कोई मतभेद हिन्दू-समाज नही रखता है।क्योंकि समानता हमारे धर्म का सहज ईश्वरीय अधिकार है।हिँन्दू समाज युगों से पहनावे और स्त्री-सामर्थ्य का समर्थक रहा है।उसने कन्याओं-बालिकाओं-युवतियों पर कभी रोक लगाने को नही सोचा।बल्कि वही इन चीजों के स्वरूप का निर्धारक-नियंता रही है।परन्तु यह जो आधुनिकता के नाम पर,महिला-सशक्तीकरण के नाम पर, नई चीज इम्पोज हो रही है वह बहुत ही ज्यादा नुकसान पहुचाने वाली है।निश्चित ही यह जर्मन-ग्रेयर से भिन्न 'नारी-वाद,और नारी-सशक्तिकरण है।

कारोबारी शैली ने,लाभवादी,उपभोक्तावादी नीति ने,नया अंतर पैदा किया है।अन्तर क्या आया है??
ये जो कन्ज्यूमरिज्म है सब लील रही है।
70 साल पहले यह सब एक उम्र का आकर्षण था।आज यह हर उम्र का आकर्षण होता जा रहा।हर उम्र को एक ही मानसिकता लोलुपता के शेड में ले जा जा रही है। है,बालपन,युवा,प्रौढ़,बुढ़ापा उम्रभेद खत्म होकर उपभोक्तावादी नजरिये का शिकार बना रही है।फिल्मे,तरह-तरह के विज्ञापन,आदि खींच-खांच कर वही सोच भर रहे है।
उनको दिखाने के लिए जैविक अट्रैक्शनस होते हैलोभ,भावना(प्रेम,करुणा,वात्सल्य,दया-आदि),भूख,दया,अहं,कामुकता,स्वार्थ,त्याग आदि बातो में पूरी संचार दुनियां 'सेक्स अपील,का सहारा ज्यादा ले रही है।इसलिए उम्र-बोध बड़ी तेजी से इम्बैलेंस हो रहा है।फिर कहते है सम्मान नही मिल रहा है।

यह सब-कुछ भारतीय समाज में हजारो वर्षो से स्थापित,स्त्री के प्रति सम्मान के सहज-संस्कारो में तेजी से परिवर्तन कर रहा है।यह खतरनाक है-यह हमें उस स्टेज पर पहुंचा देगा जहाँ पश्चिमी दुनिया आज खड़ी है।रोजाना तलाक रेट बढ़ जाती है,उसकी कीमत बच्चे चुकाते है।छोटी-छोटी बच्चियों के छोटे-छोटे बच्चो का पालना-घर बनाये जाते है।खुद 13-15 साल की बच्चियां है और उनके बच्चे हो जाते है।उन बच्चो को पालने की जिम्मेदारी उठाने की क्षमता नही होती है।फिर सरकारी व्यवस्था के सहारे पलते हैं।कहो तो उनका बुनियादी ढांचा बहुत मजबूत है।हमारी मशीनरी इतनी मजबूत नही है।युगों के संस्कार और पारिवारिक ढाँचे इसे किसी तरह सम्भाले हुए है पर ज्यादा दिन नही संभलेगा।शत्रु इस बार ज्यादा घातक हथियारो के साथ सामने है।अगर सरकार-जनता-और समाज के बुद्धिजीवी इसका सामना करने के लिए सामने नही आये तो परिवारिक ढाँचे का असन्तुलन भारत के बेस को खत्म कर देगा।क्योकि भारतीय समाज-राष्ट्र की बुनियाद परिवार है,और परिवार का आधार महिलाएं है।यह विनाशकारी वैपन की तरह प्रयोग हो रहा है।अगर नही सम्भले तो भारत के लिए यह विध्वंसक सिध्द होगा।मातृ शक्तियां जागो अभी बहुत देर नही हुई है।

(आगे जल्द ही पढ़िये-14 भाग)

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