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हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास -37

3. हिन्दू फोबिया की पड़ताल की भूमिका

अपने लिखने पर मेरा नियंत्रण नहीं। सोचा था आज हिन्दू फोबिया की पड़ताल करूंगा। पर जो लिखता है वह मुझसे बड़ा है और उस बड़े में मेरे पाठक भी शामिल हैं। उनके द्वारा उठाए जाने वाले प्रश्न, उनके द्वारा उठाई जाने वाली आशंकाएं मेरे लेखन को नियन्त्रित करती हैं और वह पिशाच जो मुझे अपनी योजना पूरी करने में बाधा डालता है उसको आप भी शक्ति देते हैं! आपके परोक्ष अंकुश के कारण जो बना वह सामने है जिसका शीर्षक बदल कर "हिन्दू फोबिया की पड़ताल की भूमिका" करना पड़ा।)

सभ्यता पाशविकता को नियंत्रित करते हुए भौतिक समृद्धि, उस समृद्धि को हासिल करने की युक्तियों और दक्षताओं के विकास, बौद्धिक प्रगति और आत्मिक उत्थान का ही दूसरा नाम है जिसे अपने ही भीतर या आसपास के आलसी, उपद्रवी तत्वों से खतरा बना रहा है परंतु जिनको नियंत्रित करने के लिए उसने अपने प्रतिरक्षा तंत्र (सैन्यबल), सतर्कता तंत्र (चर और दण्डधर या पुलिस व्यवस्था) दण्ड संहिता, न्यायाचार का विकास किया जो अपनी मर्यादा का अतिक्रमण करते हुए स्वयं भी अन्याय और दमन में प्रवृत्त पाये जा सकते है। इसलिए सभ्यता को हम जिस रूप में जानते हैं उसे आदर्श मानवीयता की व्यवस्था कहना गलत होगा।

यहाँ हम इसका उल्लेख एक सीमित सन्दर्भ में कर रहे हैं : यह कबीलाई अवस्था से आगे का चरण है, उससे बहुत जटिल है, और यह आर्थिक विषमता के कारण अपने भीतर से और अपनी समृद्धि के कारण कबीलाई अवस्था में जीने वाले समाजों से आतंकित और असुरक्षित रहा है जो आदिम लुञ्चनकारी समुदायों से कुछ ही आगे रहे हैं। अतः उत्पादन से अधिक लूटपाट पर भरोसा करते रहे हैं और अपने कबीले से बाहर के समुदायों पर अत्याचार करने,और आतंकित करने की क्षमता को गर्व का विषय मानते रहे हैं और सभ्य समाजों से लूटपाट में मिली संपत्ति को मौज मस्ती पर खर्च करके नई लूट पाट की योजनाएं बनाता और उसपर अमल करते रहे हैं।

इसमें सन्देह नहीं कि अपने भीतरी चोरों, ठगों और तस्करों से परेशान रहने वाला सभ्य समाज लुटेरे यायावर कबीलों के आक्रमणों से सदा से आतंकित रहा है और उनका दमन इतनी बड़ी चुनौती रही है कि जो इसमें सफल हुआ वह इसे बहुत बड़ी उपलब्धि मानता रहा है, इसे हम वैदिक काल के त्रसदस्यु, शकारि विक्रमादित्य आदि संज्ञाओं में देख सकते हैं ।

यदि हम इतिहास पर ध्यान दें तो पाएंगे कि एशिया के तीन देश - भारत, ईरान और चीन - लंबे समय से आगे बढ़े रहे हैं जिसमें कुछ दूर तक उनकी भूभौतिक स्थितियां भी जिम्मेदार रही हैं, और इनको लगातार अपने पड़ोसी यायावर कबीलों से खतरा बना रहा है और कई बार अकल्पनीय दुर्गति का शिकार होना पड़ा है । इन तीनों में कुछ मामलों में प्रेरक की भूमिका भारत ने निभाई, यह दावा मुझे नहीं करना चाहि, भले इस बात के प्रमाण हों कि जिन हूणों, मंगोलों से चीन और भारत भी आशंकित रहते थे, उनके भीतर पैठ बनाने के साथ चीन और उससे आगे के देशों में भी अपनी छाप छोड़ने का काम भारतीय विचारधारा ने किया और यदि ईसाई मठ-व्यवस्था पर ध्यान दें तो उस पर भी बौद्ध मत का प्रभाव पड़ा। इससे पहले भी भारोपीय प्रभावविस्तार से इसकी भास्वरता का कुछ आभास मिल सकता है। पर चीन और ईरान की भी कुछ विशेषताएं ऐसी रही हैं जो भारत के लिए अनुकरणीय रही हैं और कुछ का संभवतः उसने अनुकरण भी किया ।

सभ्य समाज का पहला और अनिवार्य लक्षण है अध्यवसाय, आत्मावलंबन, आत्मानुशासन, और अपने कमाए और उपजाए पर भरोसा। यह भारतीय सभ्यता का अन्तःसंगीत रहा है जो विविध रूपों में विविध सन्दर्भों में ध्वनित होता रहा है। ऋग्वेद का एक वाक्य है मा कस्याद्भुतक्रतू यक्षं भुजेमा तनूभिः । मा शेषशा मा तनसा । किसी दूसरे के श्रम से उत्पादित असाधारण से असाधारण सुख विलास क्यों न हो, हमें उसका भोग न करना पड़े । ऐसा दिन न मुझे देखना पड़े न मेरे आद औलाद को। यही पूर्णायुत्व के साथ अदैन्य की कामना में भी है - अदीनाः स्याम शरदः शतम् । या मा गृधः कस्यस्वित् धनम् में भी । इसलिए इसके साथ जुड़ा रहा है संयम, अपरिग्रह, अस्तेय और त्यागपूर्वक भोग का भाव। दंभ, आडंबर और प्रदर्शनप्रियता से अरुचि ।

हड़प्पा काल से लेकर बाद तक के कालों में यही आदर्ष काम करता रहा है और इसका ही परिणाम है पूर्ण नागर व्यवस्थाओं के साथ नगर और उपनगर योजनाएं जिनमें मजदूरों की बस्तियां भी एक अल्पतम मानवीय अपेक्षा के अनुरूप मिलती हैं, और संपन्न घरों में रक्षा की चिंता तो दिखाई देती है पर वैभव का प्रदर्शन नहीं। उनमें उस तरह की भव्य निर्मितियों का अभाव दिखाई देता है, जब कि सुमेर, मेसोपोटामिया और मिश्र की सभ्यताओं में समाज दरिद्रता और मलिनता से त्रस्त रहा है पर शासको के महल और मकबरे चमत्कृत करते हैं। यदि समाज के लिए उत्पीड़क निरंकुशता रही है तो इन सभ्यताओं में जिन्हें एकलपाश लगाकर ‘सभ्यताएं’ कहें तो ही इस शब्द का उनके सन्दर्भ में प्रयोग हो सकता है, अन्यथा उनके लिए ‘प्रभुता’ अधिक सही प्रयोग होगा।

दूसरी ओर वे सभ्यताएं रही हैं जिनमें जनकल्याण को प्राथमिकता दी गई। जिनके राजा की कसौटी उसकी प्रजावत्सलता रही है। वह कर वसूल करेगा (इसके बिना तो राजसंस्था का ही लोप हो जाएगा) तो इस तरह जैसे भंवरा फूल से रस ग्रहण करता है, परन्तु उसे कोई क्षति नहीं पहुंचाता, अर्थात् जो कामलवेल्थ या कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का प्राचीनतम रूप है और जिसका निर्वाह करने का आग्रह इन सभ्यताओं में रहा है, उनको इस लोकप्रियता के कारण ही प्राच्य निरंकुशता का नमूना बना दिया गया और प्राचीनतम अवस्था से कुछ सौ साल पहले तक के निरंकुश शासकों की छवि को धवल बना दिया गया। वाक्चतुर लोग अपराधियों को निरपराध और भुक्तभोगी को अपराधी सिद्ध कर सकते हैं, इसके नमूने अदालतों में ही नहीं, इतिहासलेखन में भी देखने को मिलते हैं। भारतीय इतिहासलेखन में इनका नंगा रूप देखने में आता है.

हम अपने उक्त कथन का समाहार करते हुए कहें कि जब मैंने भारत, ईरान और चीन को ही एशिया के सबसे सभ्य (और सभ्यता का जन्म ही एशिया में हुआ और इसके स्पर्श से ही यूरोप सभ्य हुआ, इसलिए विश्वसभ्यता के सबसे सभ्य) देश और समाज कहा तो इसलिए कि इनमें जनकल्याण की चिन्ता बहुत प्राचीन काल से प्रधान रही है और सभ्यता के वे गुण भी रहे हैं जिनको हम भारतीय परंपरा में वैदिक या हड़प्पा काल से मध्यकाल तक और ग्राम स्तर पर उसके बाद भी अव्याहत पाते हैं।

परन्तु परजीवी और लुटेरे कबीलों के जीवनमूल्य ठीक इसके विपरीत रहे हैं और उन्हीं से मध्येशियाई समाजों का, सच कहें तो अरब और यूरोप तक के समाजों का चरित्र निर्धारित होता है। अरब भी कुछ समय के लिए, ईरानी प्रभाव और उसकी ज्ञानसंपदा के प्रभाव में आने के बाद और उससे सीखने के बाद ही सभ्यता के शिखर पर पहुंचे थे और अपने ज्ञानगुरुओं भारत, ईरान और चीन को भी ओझल कर दिया था। कबीलाई जीवन और मानसिकता के बचाव में भी कुछ बातें कही जा सकती हैं, परन्तु हम पहले ही बहुत भटक चुके हैं इसलिए इस समय उधर नहीं जाएंगे।

मैं समझना यह चाहता था कि मध्यकाल के बाद भारतीय उच्चवर्ग के, (जो आगे बढ़ने और आगे बने रहने की चिन्ता में सबसे नकलची होता है), जीवनमूल्य सुल्तानों के समय में कितने प्रभावित हुए इसका हमें ज्ञान नहीं। संभवतः इसकी संभावना न थी। परन्तु मुगलकाल में अकबर के बाद ईरानियों के लिए विशेष अनुग्रहभाव के कारण मध्यकालीन संस्कृति में जो नया सांस्कृतिक संचार हुआ वह, जिस सीमा तक हो सका, सभ्याचार का संचार था और इसे शासकों के सेवक वर्ग ने अपने आदर्श के रूप में स्वीकार किया और एक नयी सभ्यता का उदय हुआ
परन्तु यह निचले स्तर तक अपनी जड़ें नहीं जमा सकी, क्योंकि सब कुछ राजा के चाहने से नहीं होता।

प्रशासन पर हावी मुस्लिम समाज सल्तनतकालीन चेतना से ही ग्रस्त था और ईरानी संस्कारों का नाममात्र को, सतही प्रभाव पड़ा यह तो शिया सुन्नी अनुपात से ही समझा जा सकता है। रौब जमाओ, आतंकित करो, लूटो, मौजमस्ती करो वाला आदर्श अकबर के समय में भी सक्रिय रहा अन्यथा उनके दरबारियों और अमलदारों के वैभव और मूर्खतापूर्ण प्रदर्शन के वे किस्से सुनने को न मिलते जो रात के समय निकलने पर अपने मशालचियों की संख्या को भी अपनी महिमा में गिनना पसन्द करते थे।

भारतीय इतिहास का अब तक का विवेचन इतना सांप्रदायिक रहा है कि हम इतिहास की गतिकी को समझ ही नहीं पाए। इसे धर्म से अधिक मूल्यव्यवस्थाओं के रूप में लिया जाना चाहिए था और इस रूप में समझा जाना चाहिए था कि हमने कौन से मूल्य मध्येशियाई आक्रमणकारियों से, उनसे प्रभावित समाजों से ग्रहण किए और कौन से ईरान से और ईरान के प्रभाव में कुछ शताब्दियों के लिए उदार बने अरबों से? किसका कितना प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव भारतीय समाज पर पड़ा और कहां से नीचे नहीं उतर पाया? आज के समाज में हिन्दुओं में बंटे बहुसंख्य समाज में कितने हिन्दू और मुसलमान किस स्तर से जुड़े होने के कारण मध्येशियाई मूल्यों से जुड़े रह हैं? कितने ईरानी या खिलाफत के बाद के अरबी मूल्यों से? इसका धर्म से अधिक मूल्यप्रणाली से संबन्ध है और इसे समझा नहीं गया। बाद की पीढ़ियां अजदाद की लाश ढोने और उसे ठिकाने लगाने की जिम्मेदारी ही निभा सकती हैं, उनकी सीमाओं में कैद रहने की नहीं।

मैंने सोचा था आज यह समझा सकूंगा कि कंपनी शासन के साथ हिन्दू क्यों आगे बढ़ गए, सभी हिन्दू बढे या हिन्दू छतरी के नीचे आने वालों में से कुछ लोग बढ़ गए और मुसलमान क्यों पीछे रह गए और किन मुसलमानों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, पर हो तो नहीं पाया। देखते हैं कल क्या होता है!

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