हाई स्कूल की यादें
तभी एक दिन पेपर की तारीख आ गयी ... वह आखिरी दिन था मेरा स्कूल का ... फिर भी मैं न बोल पाया ... परन्तु उस दिन मैने उसे पहली और आखिरी बार..
हाई-स्कूल की यादें
मेरे जीवन की सबसे सुखद अनुभुतियो में शामिल वे पल जो अतीत के टूटे झरोखो से कभी-कभी झांक लिया करते हैं , मेरे निरस जीवन के आंगन में .....
वैसे तो मै पढ़ने लिखने में उतना बेहतर कभी न था , नकल मार के पास होता रहा नौंवी कक्षा तक मेरी छवि स्कूल के आवारा और छटे हुये मशहूर लड़को में शामिल थी !
परन्तु मैं भीतर से वैसा बिल्कुल भी न था जैसा की लोग समझते थे ,,,
ये बात अलग थी की मैं हफ्ते में तीन चार दिन स्कूल न जाकर क्रिकेट ग्राउड में मिलता था .....
परन्तु हाईस्कूल में दादा जी के जोरदार थप्पड़ो ,लात ,घूसो नें अचानक ये मुझे बदल दिया था ,,,
अब मैं थोड़ा शांत सा रहने लगा था !
और तभी मेरे उस शांत से जीवन में एक हल्की सी सुनामी आई ,,,
जिसने मुझे आज ऐसा बना दिया ,,,
शायद स्कूल में कोई प्रोग्राम था ,,,,
वैसे तो हम लोग रोज स्कूल जाते थे परन्तु उस दिन थोड़ा अलग लगते थे ...
मैंने भी अपनी मामा की शादी में खरीदी एक लल्लनटाप पसंदीदा शर्ट और जींस पहन रखी थी ...
बड़े भाई के जूत्ते भी हड़प लिये थे ....
और दबंग स्टाइल वाला चश्मा तो भूल कैसे सकता हूँ ,,,,,
घर से जब पिताजी की स्पेलन्डर ले कर स्कूल के लिये निकला तो एकदम राजा वाली फिंलिग आ रही थी ....
खैर छोडियें ....
मै बचपन से ही शेरो शायरी का शौकिन रहा हूँ
तो कुछ कामीने दोस्तो से स्टेज पर जबरजस्ती चढ़ा दिया ,,,
एक के बाद एक शायरियां और वाह मिलती रही ...
तभी मेरी नजर उस भीड़ में कही गुम सी खड़ी एक छरहरे बदन की सुनहली आंखो पर पड़ी .....
वैसे तो मैं रोज ही देखता था उसे दिन में सैकड़ो बार पर आज कुछ अलग सी थी वह .....
उसकी निगाहें मेरी तरफ थी ,,,मेरी उसकी तरफ ...
हजारो की भीड़ में लगा बस चार ही आंखे हैं ....
शायद आग उधर भी थी ...
परन्तु तभी मेरे जेहन में दादा के थप्पड़ गुजने लगे ,,,
फेल हुआ तो टांगे तोड़ दूगा तेरी ...
मै स्टेज से उतर आया ...
और उसकी कनंचई आंखो के स्वप्न में गुम हो गया ....
सिलसिला चल पड़ा था ,,
अब मुझे क्लास में मार खाने में थोड़ा अजीब सा लगता था ...
रात रात भर जाग कर सारे नोटस लिख डाले ....
रात में तीन बजे तक अग्रेजी रटता ..
घर वालो को लगता लड़का पागल हो गया हैं ....
हमारे हिन्दी वाले गुरूजी को भी विश्वास न होता की यह वही है जो हफ्ते भर पहले था ,,, समय आगे बढ़ता रहा...
न मैं दादा के डर से कुछ बोल पाया न वह ...
मुझे तो ज्यादा पता भी नही की उसके मन में क्या था ...
मौका कई बार मिला परन्तु हिम्मत न थी ,,,,
क्लास की पिछली मेज मेरे लिये रिजर्व थी ...
गोलाप्रकार से उसका नाम बड़े - बड़े अक्षरो में लिख भी दिया था मैने ...
और मेरे कमीने मित्र उसे भाभी भी बोलना शुरू कर चुके थे .....
तभी एक दिन पेपर की तारीख आ गयी ...
वह आखिरी दिन था मेरा स्कूल का ...
फिर भी मैं न बोल पाया ...
परन्तु उस दिन मैने उसे पहली और आखिरी बार स्पर्श किया था ...
हाथ मिलाते समय ...उफ्फ....
उस स्पर्श को याद कर आज भी हाथ गर्म हो जाते हैं .....
इन्तिहान खत्म हुये ...
सब बिछड़ गये वह मेज भी और उसपे लिखा उसका नाम भी ....
बस बची तो कुछ बचपने की यादे ...
जिन्हे याद कर कभी मुस्कुरा देता हूँ अकेले में .....