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★★नारी★★

एक कोमल सी काया...

झुकी उसकी नज़रें,निश्चल मौन...

जहाँ में वह नारी कहलाया....

        साकार है जिससे संसार सारा...

        सहती सदियों से नौ मास का बनवास...

        पर बच्चे पर नाम पिता का ही आया...

भोर भई से रात गये तक...

हरदम मशीन सी पिसती रहती वह...

छोटी गलती पर फटकार भी खाया...

         बचपन में मा पिता सगे संबंधी...

        युवावस्था में पति परमेश्वर...

        वृद्धावस्था में बच्चों के ही अधीन पाया...

मंदिर में जहाँ की देवी...

घर में गृह की लक्ष्मी...

तन के बाजार ने कीमत लगाया...

        कभी सीता सावित्री कभी रुपकुँवर...

        अग्निकुँड से सती होने तक...

        सदैव परीक्षा उससे ही दिलवाया...

अंतर नहीं कुछ भी नर और नारी में...

फिर क्यों सदियों से उसे अबला बनाया...

प्रभु तेरी यह लीला 'रवि' समझ नहीं पाया...

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रविन्द्र कुशवाहा...कोपरखैरने,नवी मुम्बई..

(रूप की शोभा-दिल्ली, मार्च 1998 मे प्रकाशित मेरी रचना 'नारी' आज भी उतनी ही प्रसाँगिक)

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