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‘‘ईश्वर सर्वत्र है‘‘



कुछ लोग भगवान को मंदिरों में ढूंढने जाते हैं। जब मंदिर में जाते हैं तों उन्हें अपने ईष्ट देव के अलावा अपनी जरूरतें याद आती हैं, या फिर अपने प्रियतम या प्रियतमा को याद करते हैं, और कहते फिरतें हैं कि वे भगवान के बहुत बड़े भक्त हैं। 

पर कहना है -

‘‘सूर अनेक फिरें कण मांगत, पर वे सूर सो स्वाद कहां,

करताल, मंजीरा बजातीं फिरें, मीरा मतवारी सी चाह कहां।

राम कथा कितनों ने लिख्यो, तुलसी जैसी मरजाद कहां,

नरसिंह बसें हर खम्भन मंे, पर काढ़न को प्रहलाद कहां।।’’


‘‘आजकल अनेक प्रकार के सन्यासी, संत, महात्मा, अन्धे सन्यासी आदि भीख मांगते फिरते हैं, अनेक लोग भगवान को भजन के द्वारा व्यक्त करते हुए अपना व्यवसाय बढ़ाते हैं, पर सूरदास जी सा कोई आजतक भक्त नहीं हुआ है न होगा जो अन्ध होते हुुए भी कृष्ण की सजीवता का वर्णन किया है वैसा कोई नहीं कर सकता - 

‘‘शोभित कर नवनीत लिए, घुटरून चलत रेनु तन मण्डित मुख दधि लेप किये’’

उसी प्रकार अनेक महिलाएं अपने को ईश्वर की सच्ची उपासिका मानती हैं। कृष्ण उपासिका मानती हैं। अपने को करताल, झांझ, मंजीरा आदि बजाती हुई मीरा जैसी मतवाली प्रस्तुत करती हैं। पर उन जैसी मीरा कोई नहीं है जिन्होंने विष को भी हंसते - कृष्ण का नाम लेते हुए पी लिया। कृष्ण को अपना प्रियतमा, पति आदि सब मान लिया था।

इतिहास गवाह है कि भगवान राम की कथा को अनेक लोगों ने लिख कर खुद को सर्वश्रेष्ठ कवि प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया। परन्तु जिस तरह से मर्यादित कथा श्री तुलसीदास जी ने लिखी वैसा कोई आज तक न लिख सका। जैसी मर्यादा श्री तुलसीदास जी उस समय प्रस्तुत करते हैं जब भगवान राम माता सीता जी से फुुलवारी मिलते हैं वैसी मर्यादा अपनी लेख में कोई नहीं कर सका है - 

‘‘तासु बचन अति सियहिं सुहानें, दरस लाज लोचन ललचाने,

चली अग्र करि प्रिय सखि सोई, प्रीति पुरातन लखई न कोई।’’

भगवान का प्रत्येक कण में वास है। जिस प्रकार पानी कहीं भी समुद्र, नदी, नल, कुआं, तालाब, गिलास में हो प्रत्येक जगह उसमें हाईड्रोजन तथा आक्सीजन होते हैं। उसी प्रकार वह परब्रम्ह परमेश्वर भगवान श्री कृष्ण है जो प्रत्येक जगह, प्रत्येक खम्भें में निवास करता है। परन्तु उसे निकाल के लिए प्रहलाद जैसा त्यागी (राजभोग आदि का त्याग किया था) कोई है ही नहीं तो भगवान निकले कैसे?


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