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हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास - 17

‘‘तुम फालतू बातें करके मेरा ध्यान बंटा देते हो, फिर सही मुद्दे पर आने में एक जुग लग जाता है। मैंने तुलसी को इसलिए याद किया था कि मध्यकाल के वह अकेले कवि हैं जिसमें यह साहस था कि सत्ता के आतंक के बीच अपना विरोध प्रकट कर सकें और समाज की त्रासदी को बयान कर सकें और और जन साधारण की यातनाओं को दर्ज करते हुुए सीधे टकराव से बचने के लिए एक अन्योक्ति विधान का सहारा ले सकें ।

कहते हैं, नानक जी ने दो पदों में बाबर के अत्याचारों का उल्लेख किया था, परन्तु किन्हीं कारणों या दबावों में आगे उन्होंने आलोचना का मार्ग त्याग दिया था। दूसरा कोई कवि नहीं है जो इसका साहस कर सका हो । कबीर भी आर्थिक अभाव या उत्पीड़न का कहीं कोई संकेत नहीं देते । वह मुसलमानों की आचारसंहिता की हिन्दू नजरिए से आलोचना करते है, हिन्दुओं में ब्राह्मणों की आलोचना और हिन्दू बाह्याचार की आलोचना करते हैं, परन्तु आर्थिक शोषण धार्मिक उत्पीड़न और निष्ठुर प्रश्‍ाासन का कहीं संकेत नहीं मिलता।

कहना चाहो तो कबीर बहुत तेजस्वी आन्दोलनकारी है, उनकी तर्कशैली, वेधक व्यंय, बेलौस अन्दाज सीधे मन पर असर करते हैं, लेकिन यह असर किसी को कायल कर सकता है, वर्णवादियों का या धार्मिक श्रेष्ठता का दावा करने वालों का मान भंग कर सकता है, परन्तु मनोरचना में वह परिवर्तन नहीं ला सकता जिससे वे अपना मार्ग बदल सकें। यह काम नानक अधिक सफलता से कर लेते हैं, बिना व्यंग्य के, बिना किसी को चोट पहुंचाए।’’

‘‘तुम कहते हो मैं बहका देता हूं, इस समय तुम खुद बहक रहे हो।’’

‘‘तुम ठीक कहते हो! बहकना कुछ तो मेरे स्वभाव में है ।
'' तुमने कभी बच्चों को रास्ते चलते देखा है? उसी रास्ते पर सभी सीधे चल रहे हैं, वे इधर उधर दौड़ते, बहकते हुए फिर भी अपने रास्ते पर ही चलते है। मेरा बचपना गया ही नहीं । बहकते हुए बात करता हूं! कई बार अपने को घिक्कारता भी हूं इसके लिए और फिर समझाता हूं कि जो सीधी राह चलता है उसे पूरे रास्ते अपना रास्ता भी नहीं दिखाई देता, सिर्फ गन्तव्य दिखाई देता है, इसके कारण कई बार वह आगे के गड्ढे को भी नहीं देख पाता, और औंधे मुंह गिरता है। इसलिए रास्ते को तो बहकते हुए चलने वाले ही जानते हैं, सो अपने को समझा लेता हूं कि बुरी आदत यह भी नहीं है और इससे जो मिलता है वह तेज दौड़ से नहीं मिल सकता, मंजिल अवश्‍य जल्द मिल सकती है।
'' तो बहकने का अपना मजा भी है यार और इसके कुछ फायदे भी हैं। जब कबीर और नानक की तुलना कर रहा था तो डेल कार्नेगी की सबसे कामयाब पुस्तक हाउ टु विन फ्रेंडस ऐंड इन्फ्लुएंस पीपुल के एक तर्क की याद आ गई । वह कहता है यदि तुम को गाहक से बहस में जीतना चाहते हो तो गाहक तो हार जाएगा, पर सौदा तुम्हारे पास छोड़ कर चला जाएगा! बहस में हार जाओ, तो सौदा उसके पास पहुंच जाएगा। ’’

वह ताली बजाने लगा।

‘‘यह समझो कि यदि कबीर बहस जीतने वाले आन्दोलनकारी हैं, नानक बहस हार कर भी अपना विचार, अपनी मान्यता दूसरों तक पहुंचाने और उन्हें बदलने वाले आन्दोलनकारी हैं तो तुलसी दोनों का समन्वय और अधिक सफल आन्‍दोलनकारी क्‍योंकि वह जानते थे अपनी टहनी से अलग हुआ पत्ता उससे जुड़ नहीं पाता। अंधड़ में वह अपनी जगह पर टिक कर खडे रहने और अपने को अपनी परिधि में बदलते हुए बदलने के हामी हैं।

''कबीर उपनिषद और योग से प्रेरित है, नानक ने उपनिषद को लिया योग की अनिर्वचनीयता से मुंह फेरे रहे। सच पूछो तो कबीर से बड़े योगी नानक थे जो योग का विरोध नहीं करते उसके तत्वों को अपनी विश्‍व दृष्टि में समाहित कर लेते हैं। तुलसी तो योगियों का विरोध करते हैं, पर मुझे वह सिद्ध लगते हैं - योगः कर्मसु कौशलम् । अपने काम को पूरी दक्षता और मनोयोग से कर लेना ही योग है और उसे सफलता तक पहुंचाना सिद्धि ।

''एक बात जिस पर लगातार पर्दा डाला गया है कि कहीं हमारे सामुदायिक संबंध इससे गड़बड़ न हों उसके तीन परिणाम हुए हैं। सामुदायिक संबध बिगड़ते चले गए है, सुधरे तो नहीं हैं ये दरहम बरहम करने वाले भी मानेंगें; दूसरे हम सचाई को समझने में असमर्थ रहे हैं, तीसरे इनके परिणाम हमारी योजना के विपरीत हुए हैं। इसकी मीमांसा में जाने पर तुम सिर पकड़ कर बैठ जाओगे । परन्तु इस सचाई को स्वीकार करो कि इस्लाम के आने के बाद पूरा भारत, और इसके सभी सामाजिक स्तरों, सभी क्षेत्रों के लोग उस मनोदशा में पहुंच गए थे जिसे तुलसी के आर्थिक विपन्नता के सन्दर्भ में प्रताड़ित (सीद्यमान) जनों की निरुपायता और व्यग्रता को मुखर करते हुए प्रयोग किया था, ‘कहां जाईं, का करीं।’’

वह कुछ कहना चाहता था, मैंने बरज दिया ।

‘‘यार, अभी इस प्रयोग के साथ याद आया, और ऐसे प्रयोग तुलसी में भरे पड़े है, इतनी सादगी से इतनी गहन वेदना को सर्वग्राह्य भाषा में व्यक्त करने वाले दुनिया के कितने कवि मिलेंगे और उनमें ऐसी उक्तियां कितनी मिलेंगी। तुलसी में यह मिलती है, क्योंकि तुलसी जनमन में रचे, उसी के मुहावरों मे गहनतम विचार प्रकट करने वाले विस्मयकारी कवि है- अणोरणीयान् महतोमहीयान् !

‘‘तुम बीच में कुछ कहने जा रहे थे, मैने बरज दिया था, अब कहो ।’’

‘‘अब क्या कहूंगा? इतनी देर तक तो मैं अपने सिर को संगसार से बचाता रहा इसमें क्या कहना चाहता था, यह याद रहेगा। अब तुम्हें जो कहना है, कहते जाओ, मैं मूक बना सुनता रहूंगा।’’

‘‘कबीर के पूर्वज, कम से कम एक पुस्त पहले के लोग मुसलमान हो गए हैं, विभिन्न तबकों के लोग हैं जो इससे पहले कभी इतने क्षुब्ध न थे, और, तुलसी तो चलो बाद में आते हैं, उनसे पहले के ब्राह्मण भी सनाका खाए हुए है, पर दूसरे जिनके विषय म यह बताया जाता रहा कि इस्लाम के प्रभाव में उनको पहली बार अपना क्षोभ प्रकट करने का अवसर मिला, उसे नकारा नहीं जा सकता, परन्तु वे उस प्रभाव से बचने के लिए छटपटाते हुए पुराने भारतीय मूल्यों को संकटग्रस्त देख कर चिन्तित है और उसको बचाना चाहते हैं। प्रभावित होते तो इस्‍लाम कबूल कर लेते । आतंंकित हैं और वे तक आतंकित हैं जिनको धर्म बदलना पड़ा है और उससे बचाव के लिए छटपटा रहे हैं।

''जिन मूल्‍यों को ले कर वे चिन्ति हैं उन मूल्यों पर कसने पर ब्राह्णवादी वर्णवाद बहुत खरा नहीं सिद्ध होता था, परन्तु वह उससे सीधे टकराता नहीं, अपितु उससे अनुकूलित हो कर अपने को स्‍वीकार्य बनाने के प्रयत्न में रहता आया था परन्तु यहां इस्लामी मूल्यों का उन जीवनमूल्यों से सीधा विरोध था जिसने पिछड़े सामाजिक स्तरों पर भी अपनी जगह बनाई थी।

''मैं जो कह रहा हूं उसे समझाने चलूं तो थक जाओगे, परन्तु एक उदाहरण से समझो कि इसमें चिड़ीमार थे, शिकारी थे, व्याध थे, परन्तु निरपराध पक्षियों की हत्या अपनी उदरपूर्ति के लिए करने के कारण निन्दनीय समझे जाते थे! पूरा समाज शाकाहारी न था, मांसाहार प्रचलित था, परन्तु कसाई भी बलि पशु का गला रेतते हुए उसकी छटपटाहट का आनन्द लेने या उसके प्रति संवेदनशून्‍य होने की जगह उसे झटके से काटने का हामी था। वध को यातनापूर्ण वध बनाना उसे उद्विग्न करता था। इसलिए यह कहना तो आधा सही है कि संत आन्दोलन इस्लाम के प्रभाव में पैदा हुआ, पूरा सच यह है कि यह इस्लाम की प्रतिक्रिया में उन मूल्यों की रक्षा से कातर जनों द्वारा पैदा हुआ जो आदिम अवस्था से इन मूल्यों से जुड़े थे।

'' तुमको याह होगा, अपनी किसी पोस्ट में मैंने हिन्दुत्व को ब्राह्मणवाद और वर्णवाद से अलग किया था और कहा था कि हिन्दुत्व में ब्राह्मणवाद सहित सभी मतों के लोगों के लिए जगह थी जब कि ब्राह्मणवाद सहित दूसरे किसी में यह उदारता नहीं थी।

‘‘इस बात को समझा जा सका होता तो यह भी समझ में आ जाता, कि क्यों संत आन्दोलन अपने मूल्य सीधे उपनिषदों से या उपनिषदों तक आई और उससे ेहो कर प्रवहमान परंपरा से ग्रहण करता हैं, न कि ब्राह्मणवाद से जिसे उसका सीधा टकराव नहीं हुआ इसलिए उसे झेलता आया था।’’

‘‘बात पूरी हो गई? चला जाय?’’

‘‘नहीं यार जो कहना था वह तो रह ही गया। रास्ते में भटकने का तो यही नुकसान है कि मंजिल तक पहंचने में इतनी देर हो जाती है कि रास्ते को ही अपनी मंजिल मानना पड़ जाता है।

'' मैं कहना यह चाहता था कि पूरे सन्त आन्दोलन में भी जिसमें नवधर्मान्तरित हिन्दू भी श्‍ाामिल थे, किसी का साहस ऐसी तीखी टिप्पणी करने का नहीं होताः गोड़ गंवार नृपाल महि यवन महामहिपाल और लो अगली पंक्ति तो भूल ही गई पर उसमें कहा गया है कि वे घरों में घुस कर सिल पत्थर तक तोड़ डालते हैं और इनके टीले बन गए हैं, ‘लागे अढुक पहाड़। अकेले वह है जो अभाव और अकाल की उस दारुण अवस्था का वर्णन करते हैं जिसमें न किसान किसानी करने पाता है, न बनिया राेजगार चला पाता है, न सेवक को चाकरी मिलती। क्षुधार्त लोग अपने बेटे और बेटियों तक को बेचने को विवश हो जाते हैं। अकेले वह है जो कलिकाल की आड़ में बार बार मध्यकालीन संकट की याद दिलाते हैं। वह है जो क्षुधार्तता की यातना का मूर्त करते हैं, ‘‘आगि बड़वागि तें बड़ी है आगि पेट की’।

और सुनो स्त्रियों के विषय में बहुत सारी शिकायतें तुम लोगों को हैं तुलसी से सन्दर्भ और रणनीति के अज्ञान के कारण, पर कभी फुर्सत मिले तो दुहराते रहना, ‘कत बिधि सृृृृजी नारि जगमांहीं । पराधीन सपनेहु सुन नाहीं ।' बाकी बातें कल। मैं जब तुलसी को क्रान्तदर्शी और क्रान्तिकारी कह रहा था तो उनके इस पक्ष के कारण जिसे दबाने के प्रयत्न हेाते रहे और इसलिए तुम्हें वह प्रतिक्रियावादी लगते हैं न कि सांस्कृतिक मोर्चे के अद्वितीय योद्धा !

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