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मनमोहन सिंह जी जब प्रधानमंत्री थे तो ऐसा नही है कि ये बोलते नही थे,आप उनके रिकॉर्ड उठा कर देखिये जब भी कोई घोटाला सामने आया उन्होंने आगे बढ़ कर घोटालेबाज़ों के बचाव में बोलने के लिए आगे आये ।
अपनी तथाकथित ईमानदारी को ढाल बनाया और पूरे देश को लूटने दिया,संसाधनों का बंदरबाट होने दिया ।
संसदीय शासन प्रणाली सामूहिक उत्तरदायित्व की धारणा पर काम करती है जिसका अर्थ है कि सरकार के सभी प्रकार के कार्यो के लिए पूरा मंत्रिमंडल सामूहिक रूप से जिम्मेदार होता है ,पर तत्कालीन चर्चाओं में बहुत चतुराई से मनमोहन सिंह को एक ईमानदार व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा और मीडिया और बौद्धिक वर्ग उनकी ईमानदारी की चर्चा करता रहा ।
जबकि आज किसी सुदूर गांव में भी किसी बीजेपी के छुटभैया नेता द्वारा कुछ किया जाता है तो सीधे मोदी से जवाब मांगा जाता है और वही मीडिया और बौद्धिक वर्ग मोदी से जवाब की अपेक्षा करता है ।
जबकि सरकार और पार्टी दोनों अलग अलग बाते होती है और जिस कार्य और व्यहार के लिए क़ानूनी तौर पर जो जिम्मेदार होता है जवाब उसी से माँगा जाना चाहिए पर सोची समझी रणनीति के तहत जिसके लिए जो जिम्मेदार है उससे जवाव न मांग के असली दोषी को जहाँ बचाया जाता है वही जिसे जवाबदेह बनाया जाना चाहिए उसको और लापरवाह बनाया जाता है ।

मनमोहन सिंह ने पिछले वर्ष विमुद्रिकरण के बाद दिसम्बर में बोलते हुए मोदी सरकार के इस फ़ैसले की आलोचना की और इसे "सामूहिक लूट" बताया ।
हालांकि इसके अलावा और भी आरोप लगाए पर सीधे सरकार की नीयत पर सवाल उठाकर अपने पूरे भाषण को राजनीतिक स्वरुप दिया ।
जबकि उनके पूरे भाषण में न तो भ्रस्टाचार से लड़ने के कोई कारगर सुझाव शामिल थे न ही काला धन को नियंत्रित करने के किसी उपाय का जिक्र था ।
उनके उस भाषण को गुणात्मक रूप से बहुत हिन् कहा जाय तो गलत नही होगा ।
जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे तब मुख्य विपक्षी दल के रूप में बीजेपी के मंहगाई जैसे मामलो पर चर्चा की मांग को यथासंभव टाला गया और उनके पूरे कार्यकाल में मात्र दो बार महंगाई पर चर्चा हुई जिसपर मनमोहन सिंह का कथन बेहद निराशाजनक रहा ।
कोलगेट,2G, जैसे मामलो पर सामान्य राजनीतिक परम्परा का निर्वाह तक नही किया गया जिसके फलस्वरूप बीजेपी को सर्वोच्च न्यायालय जाना पड़ा और न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद आरोपित मंत्रियो को बर्खास्तगी हुई ।

बीजेपी और मोदी जी की चुनावी विजय को न स्वीकारने का परिणाम ये रहा की प्रारम्भिक तीन सत्र गैरजरूरी मामलो में संसदीय गतिरोध बढ़ाया गया ताकि सरकार प्रभावशाली ढंग से काम न कर सके ।

मोदी सरकार विपक्ष से किसी भी विषय पर चर्चा के लिए हमेशा तैयार रही कभी कोई टाल मटोल नही किया बावजूद इसके कभी भी संसदीय चर्चा को समूचे विपक्ष और कांग्रेस ने वोट बनाने के मंच और घटिया गैरजिम्मेदार राजनीतिक अखाड़े में बदल दिया ।

असहिष्णुता वाली बहस पर भी जब गृह मंत्री जवाब दे रहे थे तब भी कांग्रेस बहिर्गमन कर गयी और आउट लुक के एक झूठे बयान जिसे सलीम खान(TMC सांसद) ने उद्धरित कर पुरे मामले को साम्प्रदायिक रंग देने की घटिया कोशिश की ।
दलित मामले में भी जब तथ्य और तर्क से गृह मंत्री जवाब दे रहे थे तब भी कांग्रेस ने ऐसा ही किया ।

कल के राज्य सभा की घटना उसी की पुनरावृत्ति है जबकि प्रधानमंत्री के शब्द चयन में न कोई दिक्कत है न संदर्भ की कोई चूक है ।
एक शालीन, शिष्ट , स्पस्ट और सबके समझ में आने वाले व्यंग को लेकर जो शोर गुल किया जा रहा है वो अस्वीकार्य भी है अर्थहीन भी ।

यहाँ ये कहने की जरूरत नही की प्रधानमंत्री मोदी के लिए किस तरह के शब्द,भाव और वाक्य का प्रयोग किया गया ।

एक पारदर्शी और जवाबदेह सरकार जवाब देना जानती है कांग्रेस और क्षद्म बौद्धिक वर्ग की तिलमिलाहट इस बात का प्रमाण है कि मोदी जी ने जवाब करारा दिया है और चोट सही जगह लगी है ।

हर सवाल का करारा जवाब मिलेगा ।

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