हिन्दी English


थोबड़े पर ‘मुँह’ नामक खोह कितनी महत्वपूर्ण हो सकती है, हालिया चेतावनीपूर्ण बयानबाज़ी से यह समझा जा सकता है। ‘अमर’ राजनेता अमरसिंह के मुँह के बारे में यही चेताया जा रहा है, कि अगर वह खुल गया तो कई ‘फँसेंगे’। इस चेतावनी से यह भी ज़ाहिर होता है कि देश में ऐसे कई मुँह हैं जिनके खुलने से ‘फँसने’ वालों की लाइन लग जाएगी और ‘फँसने’ वाले वही सब होंगे जिन्होंने देश की मट्टी-पलीत कर रखी है। इस लिहाज़ से बंद मुँह वाले सभी बंदे खुफियातंत्र के लिए बड़े काम के हैं, उनकी ज़रा अच्छे से खातिर-तवज्जों की जानी चाहिए।

यह ठीक है कि ‘मुँह’ व्यक्ति की निजी संपत्ति होता है, वह उसे खोले या बंद रखे यह उसकी मर्ज़ी, मगर ऐसे ‘मुँहों’ को खुलवाने के लिए ‘बातों’ और ‘लातों’ दोनों की पुख्ता व्यवस्था अवश्य कर रखी जानी चाहिए, जो कानून को ठेंगा दिखाने वालों के बारे में देश के उत्कृष्ठ जासूसीकर्मियों से ज़्यादा जानकारियाँ रखते हैं। मुँह भले ही निजी हो मगर उसका खोलना-बंद रखना सरकार के कंट्रोल में होना चाहिए, ताकि राष्ट्रहित में इसे जब, जहाँ, जितना ज़रूरी हो, खुलवाने का सुभीता रहे।

‘मुँह’ कुल्हड़नुमा वह शारीरिक संरचना है जिसमें लोग अक्सर स्वार्थ का दही जमा कर रखते हैं। जब तक स्वार्थ सधता रहे इसमें दही जमा रहता है, और लोग फँसने से बचे रहते हैं। जहाँ स्वार्थसंधान में बाधा आई कि लोग दही उलटकर अपने ‘मुँह’ को खोलने की धमकी देने लगते हैं और किसी की भी लुटिया डूबाने पर उतारू हो जाते हैं। अपने अमर बाबू के मुँह को दुनिया आजकल बड़े उत्साह और विश्वास से देख रही है कि कब यह चरमराकर खुले और हमें खुश होकर तालियाँ पीटने का अवसर मिले।

किसी की आत्मा जागृत हो जाए तो बरसों-बरस ‘मुँह’ के बंद रहने से भीतर दबी पड़ी नापाक ‘कर’तूतों की फाइलें, फ्लापियाँ, सी.डी.याँ, खदबदाने लगती हैं, और क्षणिक आवेश के कारण जब उसका मुँह खुल जाता है तो भूकम्प आ जाता है और फिर कई गगनचुंबी स्तंभों को धराशायी होना पड़ता है। वह ‘धरा’ आमतौर पर तिहाड़ जेल की होती है। कुछ लोगों को जहाँ किन्ही ‘मुहों’ के खुलने से तिहाड़वास हो जाता है तो वहीं किसी-किसी को ‘उसका’ मुँह खुल न जाए इस डर से तिहाड़वासी बना दिया जाता है। बैठो बेटा अंधेरी कोठरी में, और खोलो अपना ‘मुँह’ कितना खोलना है।

देखा जाए तो शरीर में ‘मुँह’ की भूमिका बड़ी ही चुनौतीपूर्ण है। आँखों से देखी, कानों से सुनी असामाजिक-असांस्कृतिक ‘कर’तूतों की रामकहानी को कंठ से फूटकर बाहर निकलने से इसे बलपूर्वक रोकना पड़ता है। फिर चाहे वह दही जमा कर रोके, मुखाग्र को मोची से सिलवाकर, या उस पर चौड़ा टेप चिपकाकर रोके, वह रोकता है, और यही मुँह का वह कुकृत्य है जिसकी वजह से देश में ‘आचार’ की इतनी समस्या व्याप्त है। स्वेच्छाचार हो, भ्रष्टाचार हो, दुराचार हो, व्यभिचार हो, सब कुछ उन मुँहों के चुप रहने के कारण ही फूलता-फलता है। जबकि आज ज़रूरत यह है कि मुँह खुले और तबियत से खुले। भले ही डाँटने-डपटने, गाली देने, कोसने, निंदा करने के लिए खुले, यहाँ तक कि पात्र बदमाशों के मुँह पर थूकने के लिए ही सही, मगर खुले, तब देखिए देश में ‘आचार’ का इतना संकट न रहे। लोग राम-राज्य का अनुभव करने लगें।

मगर, कभी-कभी ऐसा भी होता है कि देश में कुछ लोगों का ‘मुँह’ जब खुलता है तो भीषण बदबू का असहनीय भभका छूटकर बाहर निकल पड़ता है और पूरे समाज को सड़ाने लगता है। लोग इस बदबू और सड़ांध को ईत्र की ‘खुशबू’ समझकर सुख की फर्जी अनुभूतियों में डूब-उतरा ही रहे होते है कि घात में बैठे लोग पलक झपकते ही उनका सब कुछ लूट ले जाते हैं।

इसलिए बंद मुहों को खुलवाने और खुले मुँहों को बंद करवाने के लिए कोई कठोर वैधानिक प्रावधान कर इन्हें कानून के दायरे में लाना चाहिए। मेरी राय में तो देश के सारे मुहों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाना बहुत ही बढ़िया रहेगा। सरकार को इस काम के लिए एक अलग विभाग खोलकर तमाम मुहों की निगरानी का चाक-चैबंद प्रबंध करना चाहिए। जब सारे बंद मुँह खुलेंगे और खुले संडांध मार रहे मुँह बंद हो जाएँगे तब देश का सचमुच भला हो जाएगा।

Comments

Sort by

© C2016 - 2024 All Rights Reserved