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स्वतंत्र प्यार - स्नेह समर्पण से निःशब्द रिश्ते (रूह से रवानी की ओर)

जब जब प्रेम शब्द का नाम लिया जाता है,,, जाने अनजाने ही हर कोई अपने अंदर झांक के देखने लग जाता है,,,, झांके भी क्यों नहीं भाई प्रेम है ही ऐसा की पत्थर में भी जान फूंक दे,,, तो हम तो इंसान है,,,, ज्यादातर लोग प्रेम का मतलब बस शादी को समझते हैं,,, ऐसे लोग अक्सर या तो प्रेम तिरिस्कार करते नज़र आएंगे या माता पिता के प्रेम की महिमा का गुणगान करते हुए,,,, कई बार में यह सोचने पर विवश हो जाती हूँ की क्या वाकई में प्रेम सिर्फ रिश्तों में ही होता है ??,,,, क्या वाकई में हम प्रेम को बाँध सकते हैं ???,,, क्या प्रेम को आयोजित किया जा सकता है ???? जितना भी सोचती हूँ उतना ही इस प्रेम की भूल भुलैया जैसी गलियों में खो सी जाती हूँ.... पुरानी यादों की कड़ियाँ एक बार फिर से खुलने लगती है.... काफी पुरानी बात है जब में एक जगह किराये पर रहती थी,,, मकानमालिक की ३ बेटियां थी,,,, बड़ी बेटी की शादी हो चुकी थी,,,, बाकि दो बेटियां कुंवारी थी,,,, मकानमालिक का एक बेटा भी था जो की एक बम विस्फोट में मारा गया था,,,, वो बम विस्फोट दिल्ली का पहला बम ब्लास्ट था,,,, परिवार गरीब था तो सरकार ने तब उनको यह घर दिया था मुआवजे के तौर पर,,,, राजस्थान के थे वो लोग जाति से धोबी थे,,,, वो मकान मेरा पहला किराये का घर था,,, प्रॉपर्टी डीलर ने मेरी डिमांड के हिसाब से मुझे वो घर दिखाया,,,, घर भी ठीक ही था एक रूम एक किचन , और टॉयलेट बाथरूम बाहर बालकनी,,, मैं वहां पर रहने लगी,,, मुझे जल्दी किसी से भी दोस्ती करने में बड़ी कोफ़्त सी होती है,,, अक्सर मैं बात भी बस हाँ हूँ में करती हूँ,,, जरूरत की बात की और बस ख़त्म,,,, शायद मैं सामाजिक प्राणी नहीं हूँ,,, कोई मज़ाक भी करे तो बस अगर सही लगा तो मुस्कुरा के निकल जाउंगी नहीं अच्छा लगा तो चुप चाप आगे बाद जाना जैसे मेरी आदत में शुमार हो........... एक महीना बीत गया मैं जस की तस बस मेरा काम जैसे किराया देना और अपने रूम पर रहना था,,, फिर धीरे धीरे मकान मालिक की दूसरे नंबर की बेटी मेरे रूम पर आने लगी,,, कभी खाना खाया पूछती तो कभी कुछ , कभी कहती की दीदी अपने कपडे दे दिया करो प्रेस को मैं कर दूंगी और कपडे धुलवाने हो तो भी बताना हम धोबी है यह हमारा काम है,,, और मैं मन में सोचती की क्या फर्क पड़ता है की तुम धोबी हो या नहीं फिलहाल तो मकान मालिक हो और कपडे धोना कोई बड़ा काम नहीं है,,, मैं प्यार से उसको कपडे धोने के लिए मना कर देती और प्रेस के कपडे देने का कह के बात खत्म करती,,,, धीरे धीरे वो लड़की मुझ से रोज बात करने लगी, अब मैं भी थोड़ा जवाब देने लगी थी,,, ओह माफ़ करना उसका नाम तो बताना ही भूल गयी , उसका नाम था ""निर्मल"" जैसा नाम था वैसा ही स्वभाव था उसका एक दम पानी की तरह साफ़ निर्मल शीतल,,,, वो हर रोज मेरे जाने के समय का ध्यान रखती और जब मैं ऑफिस से वापस आती तब भी वो मुझे सीढ़ी पर ही बैठी मिलती,,, कभी कभी सब्जी मार्किट जाने के लिए भी मेरा इंतज़ार करती की शायद मुझे कुछ जरूरत हो तो मैं उससे मंगवा लूँ,,,, हालाँकि मैं अपने सब काम खुद ही करती थी ऑफिस से आते समय ही बस से उतर के बस स्टैंड के पास जो रेहड़ी होती थी वहीँ से जरूरत की सब्जी फल ले आती थी,,, गली के बाहर ही एक दुकान थी किराने की वहां से बाकि राशन ले आती थी वो दुकानदार भैया भी अब पहचानने लगे थे उनका घर हमारे घर के एक दम सामने था,,, निर्मल ने ही उनकी बीवी से मेरी दोस्ती करवाई थी,, अब हम तीन दोस्त थे,,,, हाँ एक ऊपर के फ्लोर वाली मधु दीदी भी थी उनके तीन बच्चे थे,,,, अब धीरे धीरे निर्मल मुझे संडे को कभी मधु दीदी के घर तो कभी सामने वाली दीदी के घर ले जाती थी हम लोग खूब गप्प करते,,, फिर एक दिन मधु दीदी ने निर्मल के लव अफेयर का बताया मुझे , मैं हैरान थी की यह कैसे हो सकता है, निर्मल की मम्मी के दांत नहीं थे और वो तब भी राजस्थानी कपडे ही पहनती थी दिल्ली में रहते हुए ७० साल जिसे हो चुके हो और कपडे आज भी वो अपने गॉंव के परिवेश के अनुसार पहनता हो वो इंसान या वो परिवार क्या भला निर्मल के प्यार की मान्यता देगा?? क्या निर्मल अपनी पसंद के लड़के से शादी कर सकेगी ? क्या वो लड़का इसके माता पिता को राज़ी कर पायेगा?? ऐसे हज़ारों सवाल मेरे मन में उठ रहे थे , मैंने मधु दीदी से पूछा की दीदी लड़का कौन है क्या मैंने देखा है उसको ? मधु दीदी ने बताया की लड़का "गुप्ता" है चार्टेड अकाउंटेंट है, एक बार इनके यहाँ किराये पर रहने आया था तब ही इनका अफेयर शुरू हुआ, लेकिन घर वालों को जब पता चला तो उसको भगा दिया गया, हालाँकि निर्मल मौका निकाल के अक्सर उससे मिल भी लेती थी,,, लड़के ने काफी मानाने की कोशिश की थी निर्मल के माता पिता को लेकिन वो नहीं माने , समाज गॉंव बिरादरी की कहानी सुना के उसको मना कर दिया गया,, लड़के ने निर्मल से कहा भी की चल कोर्ट मेर्रिज कर लेते हैं... लेकिन निर्मल भी कम जिद्दी नहीं थी,, वो भी जैसे ठान के बैठी थी की माँ बाप की मर्जी के बिना शादी नहीं करुँगी लेकिन उस लड़के के सिवा भी किसी और से शादी नहीं करुँगी,,, यह कहानी मुझे बड़ी ही अजीब सी लगी थी जब सुनी थी तब,,, वैसे भी मुझे प्रेम कहानियां अजीब ही लगती थी तब,,, लेकिन निर्मल से शायद कुछ लगाव सा हो गया था ४-५ महीने में तो इसकी बात अलग थी, एक बार मॉर्निंग वाक के टाइम पर इसने उस लड़को को बुला के मिलवा भी दिया, लड़का वाकई में बहुत अच्छा था सभ्य था पढ़ा लिखा था एक वेल कल्चर्ड फॅमिली से था,,,, वैसे सच कहूँ तो मैं हैरान भी थी की इतना अलग परिवेश का बंदा कैसे एक अनपढ़ लड़की से प्यार कर बैठा और एक ऐसे परिवार के आगे प्यार की भीख मांग रहा है,, खैर जो भी हो मुझे क्या.... अब जब निर्मल के प्रेम सम्बन्ध मुझे पता चल चुके थे तो अब निर्मल हर दिन उसके साथ होने वाले दुर्व्यवहार की कहानी भी बताने लगी थी कभी मार पीट तो कभी घर से निकाल देना कभी खाना न देना तो कभी कुछ लगभग यह रोज का ही सिलसिला था

पहले मैं उसकी हंसी को सुन के थकान भूल के उसकी बातों में खो जाती थी अब उसके साथ होने वाले दुर्व्यवहार से खुद भी तनाव में रहने लगी थी,,, मुझे समझ ही नहीं आता था की कोई माँ बाप अपनी बेटी को हर वक़्त मर जाने के लिए कैसे कह सकते हैं,,, वो भी वो बेटी जो उनकी मर्जी के लिए ही सब कुछ सहे जा रही है,,,, यह कौन सा प्यार है माता पिता का ?? क्या वाकई में यह माता पिता का स्नेह है ?? धीरे धीरे बात साफ़ होने लगी यह सब कूड़ा निर्मल के माता पिता के दिमाग में उसके जीजा भरे जा रहा था ,,,, क्योंकि बेटा कोई था नहीं उनका ३ बेटियां वो बड़ा दामाद और एक बड़ा सा मकान,,,, लेकिन बहन जीजा का लालच अब निर्मल की ज़िन्दगी से भी बड़ा हो रहा था,,,, मधु दीदी ने कई बार कहा निर्मल को की तू चली जा यहाँ से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा तेरे होने न होने से, लेकिन वो भी जिद्दी कहती जाउंगी तो शादी करके ही नहीं तो यहीं मर जाउंगी,,,, बड़ा ही अजीब सा था सब कुछ हम जो उसके कुछ नहीं लगते थे उसके शरीर के निशान देख के आंसू नहीं रोक पाते थे,,, और उसके अपने खून के रिश्ते उसको जख्म देते नहीं अघाते थे,,,, उसको बुखार हो या चोट लगे उसकी दवाई लाना मधु दीदी का काम था,,, और जब भी उसको खाना न मिले तो उसको खाना खिलाना छुप के मेरा काम था,,,, यूँ ही करते करते करीब ११ महीने बीत गए ,, एक दिन ऑफिस से आते टाइम में अपनी बुआ को फ़ोन करने गयी पीसीओ में, जो की मेरा रोज का काम था ( रात को ऑफिस से आने के बाद बुआ को फ़ोन करके बताना नियम था मेरे घर का माँ पापा नहीं थे तो बुआ ही हर वक़्त की खबर रखती थी तब ) तब पीसीओ वाले ने कहा की आपको पता है आपके घर में क्या हुआ है ? मैं थोड़ा घबरा गयी की क्या हुआ सुबह तक तो सब कुछ ठीक था और यह पीसीओ वाले को मेरे घर का कैसे पता ? इसको कैसे पता की मैं कहाँ रहती हूँ,,, मैंने चिढ़ के उसको कहा की आप अपने काम से मतलब रखिये मैं मेरे घर जा के देख लुंगी क्या हुआ है,, वो चुप हो गया,,, थोड़ा आगे जा के मैं राशन की दुकान से कुछ समान लेने लगी तो भैया बोले की तुझे पता है आज क्या हुआ है तेरे घर में?? मैं फिर हैरान की ऐसा क्या हो गया जो सब मुझ से एक ही सवाल पूछे जा रहे हैं,,, मैंने कहा भैया अभी तो आयी हूँ मुझे कैसे पता होगा की क्या हुआ घर में, मैंने उदास और थकावट भरे लहजे में कहा,,, भैया बोले की सामान छोड़ और जा के देख घर में निर्मल नहीं रही उसने फांसी लगा ली निर्मल नहीं रही उसने फांसी लगा ली ??? यह बात सुन के पहले तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ जिस लड़की से सुबह में बात करके गयी थी वो शाम को नहीं रही ? यह कैसे हो सकता है सुबह तो सब ठीक था ? फिर अचानक से यह कैसे ?? मैंने भैया को कहा की नहीं सुबह तो मेरी बात हुई थी तब सब ठीक था अचानक ऐसे कैसे हो गया,, वो बोले की जा के अपनी भाभी को पूछ,,, में सीधे भैया के घर में जा के भाभी को पूछा की भाभी यह क्या हुआ है,, तब पता चला की निर्मल की शादी के लिए लगातार दबाव बनाया जा रहा था,,, और दिन में उसकी छोटी बहन ने उसको काफी मारा था और उसपर मिटटी का तेल डाल के जलाने जा रही थी,, तब निर्मल ने कहा की रहने दे तू मुझे जला तो देगी लेकिन तुझे जेल हो जाएगी ,,, पुलिस माँ बापू को भी ले जाएगी,,,, उनका बुढ़ापा जेल में कटे यह सही नहीं होगा,,, ऐसा कह के निर्मल ने कहा की में खुद ही मर जाती हूँ,, अगर तुम सब यही चाहते हो तो,,, इतना होने पर भी उसकी माँ और बहन जब शांत नहीं हुए उसको लगातार कोसते रहे और बार बार उसकी बहन उसको उकसाती रही की मर क्यों नहीं रही अब ? डर लग रहा है तो बोल मैं मार दूँ तुझे , बस इसी सब के बीच में निर्मल ने पंखे से दुप्पटा बाँध कर फांसी लगा ली.......... यह सब सुन के समझ ही नहीं आ रहा था की क्या करूँ आंसू रुक नहीं रहे थे चीख जैसे गले मैं अटक सी गयी थी,,, एक घंटे मैं वहीँ पर भाभी के पास बैठ के रोती रही भाभी का भी वही हाल था की काश निर्मल चली जाती अपने घर से ,,, कौन से घर के लिए उसने अपनी जान दी जिन्हें उसके होने न होने से कोई फर्क ही नहीं,,, ऐसे भी कोई माँ बाप होते हैं ?? ऐसी कोई बहने होती है ?? और इन जैसे राक्षसों के लिए इतना सोचना,,,, निर्मल का अंतिम संस्कार उसकी मौत के दो घंटे बाद ही कर दिया गया था,,,,, वो तो पंचतत्व में विलीन हो कर अपने नाम की ही तरह ही निर्मल हो चुकी थी,,, लेकिन छोड़ गयी थी तो कई सवाल ,,, हम सब के लिए,,,, क्या वाकई में यह माता पिता का प्रेम था ?? क्या वाकई में यह बड़ी बहन का स्नेह था छोटी बहन का दुलार था ?? क्या समाज वाकई में किसी की जान से बढ कर हो जाता है ?? क्या सच में निर्मल की गलती थी ?? क्या वाकई में प्रेम को आयोजित करके करवाया जा सकता है ?? खैर जो भी हो में जब अपने घर जाने के लिए भाभी के घर से निकल कर अपने घर की सीढ़ियों की तरफ बड़ी तो निर्मल की माँ दरवाजे पर ही मुझे देखते चीख चीख के रोने लगी की देख तेरी सहेली चली गयी छोड़ के हमको,,,, मुझे उन लोगों के उस घिनोने रोने धोने के नाटक से चिढ़ सी हो रही थी मैं बिना कुछ कहे ऊपर चली गयी रूम पर जा के मैं समान रख के रोने लगी जोर जोर से फिर जब रहा नहीं गया तो मधु दीदी के पास गयी,,, मधु दीदी और मैं सीढ़ी पर बैठ कर रोये जा रहे थे की सुबह सुबह जो हंसती हुई लड़की थी वो शाम को एक तस्वीर में बदल चुकी थी,,,, ऐसा लग रहा था जैसे कुछ अंदर बहुत दर्द सा दे रहा हो ,,,, रो के भी जो बाहर न आ पा रहा हो,,, वो दर्द मैंने एक बार पहले भी महसूस किया था जब मेरे माँ पाप की डेथ हुई थी,,, ७ साल बाद फिर वही दर्द जो मुझे अंदर से चीरे जा रहा था,,, उस दिन हम तीनो के घर भी खाना नहीं बना,,, अगले दिन मधु दीदी ने निर्मल के घर खाना भेजना शुरू किया जो की चौथा होने तक दिया जाता है,,, यह अनुभव मेरे लिए पहला अनुभव था जहाँ मैंने ऐसे माता पिता देखे थे ऐसी बहने देखी थी क्या यही परिभाषा थी प्रेम की ??? एक तरफ वो लड़की जिसने अपने माता पिता के लिए अपने प्रेम का समर्पण किया दूसरी तरफ वो लड़का जिसने अपनी प्रेमिका की इच्छा को सम्मान दिया ""स्वत्रन्त्र प्यार और निशब्द रिश्ते"" पहली बार देखे थे मैंने,,,, लेकिन निर्मल का न होना बिलकुल अच्छा नहीं लगता था मुझे शायद में अकेली रहती थी इसलिए मुझे ज्यादा उसकी याद आती थी,,,,, बाकि सब का परिवार था तो सब बिजी हो गए थे उस में निर्मल की मौत के एक महीने बाद ही उसकी बहन और माँ ने सभी किरायेदारों को मकान खाली करने को कहा था,,,, ( ताकि निर्मल की मौत की कहानी को छुपाया जा सके ) हम सबने अलग अलग घर देख लिए थे और फिर एक समय के बाद घर छोड़ भी दिया... लेकिन फिर भी निर्मल को मैं कभी भुला न सकी वो बहुत अपनी सी लगने लगी थी घर छोड़ते वक़्त ऐसा लग रहा था जैसे कुछ छुटा जा रहा हो वहां मेरा यह बहुत अजीब सी फीलिंग थी,,,,, बस इतनी सी कहानी थी प्रेम की रूह से रवानी तक........

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