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हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास- 9

हमें इस बात का सही अनुमान नहीं है कि देशान्तर में अपने स्वर्ग बसा कर रहने वाले लोगों के सहायक, सेवक, रक्षक कहां और कैसे रहते थे? उनके बीच के संबंध कैसे थे? यदि भिन्न भाषाभाषी भारतीय उनके बीच थे तो उनकी गतिविधियां क्या थीं। उनका स्थानीय जनों से संपर्क का रूप क्या था? एक बात कुछ साफ लगती है कि पांटिक क्षेत्र या अश्‍वक्षेत्र को छोड़ कर अन्यत्र उनकी भाषा का ऐसा प्रभाव नहीं पड़ा जिसे याद किया जाता परन्तु आर्य भाषा का भी ऐसा प्रभाव न पड़ा कि स्थानीय स्तर पर वहां भी भारत के अन्य परिवारों में रखी जाने वाली भाषाओं के स्पष्ट प्रभाव की बात की जाती। इसका एक कारण यह हो सकता है कि दूसरे क्षेत्रों में कोई ऐसी गतिविधि नहीं थी जिसके कारण वैदिक अभिजात वर्ग या श्रेष्ठिवर्ग की सेवा में लगे लोग स्थानीय जनों से सीधे संपर्क में आ पाते, जैसे खनन और खनिज द्रव्यों का प्रसाधन, जब कि अश्‍वक्षेत्र में सैंधव और अन्ध्र जनों को तारपान या जंगली घोड़े को पकड़ने, साधने आदि के क्रम में स्थानीय जनों से सीधा संपर्कं जरूरी था और संभव है इनका स्थानीय आबादी में विलय भी हो गया हो, जिसके कारण उनकी भाषाओं का प्रभाव साफ लक्ष्य किया गया। यह अलग बात है कि मुंडा का प्रभाव जिनता साफ दिखाई देता है उतना द्रविड़ का नहीं जिसके इक्के दुक्के शब्द खींच तान कर उन भाषाओं में आज से पांच हजार साल पहले से तलाशे गए है।

सच कहें तो सिन्ताश्‍ता और आन्द्रोनोवो के या उन अनेक संस्कृतियों के जो अश्‍वक्षेत्र में पाई जाती हैं, भाषाई उपस्तर का अध्ययन नहीं किया गया है और सभी में केवल संस्कृत से साम्य रखने वाले शब्दों पर ध्यान दिया गया। जिस पहलू पर ध्यान दिया गया वह था आर्यों के आगमन के लिए पूर्वकल्पित काल से मेल खाने वाले दौर में कुछ लोगों के उस क्षेत्र से पूर्व की ओर बढ़ने के पुरातात्विक प्रमाण क्योंकि उस काल की भाषा के साक्ष्य थे नहीं, आज उस अंचल की भाषा का इस दृष्टि से अध्ययन और विवेचन करने की जरूरत नहीं अनुभव की गई । यदि ध्यान गया तो दूसरे पहलुओं पर जिनमें एक था अन्त्येष्ठि का तरीका । इसके दो तत्व रोचक हैं, एक यह कि मरने के बाद भी आदमी को वैभव की जरूरत पड़ती है इसलिए अभिजात मृतकों की समाधियों से विपुल संपदा का उद्धार और दूसरा था सहमरण या पति के साथ पत्नी के भी मृत्युबान्धवी होने और दफन किए जाने की प्रथा।

सच पूछें तो जो बता रहा हूं उसका मुझे भी कुछ अधभूला बिसरा ही स्मरण है। हम यह मान सकते हैं कि सुरक्षा की सारी सावधानियों के बाद भी स्थानीय जनों से इन प्रवासियों का संबन्ध उतना तनाव भरा नहीं रहा होगा। इससे आगे स्लाव और बाल्टिक क्षेत्र में आधी पुरानी याद और आधी बाद की जानकारी के आधार पर यह याद बनी रह गई थी कि गंगा के तट से वेदज्ञ लोग आए थे और उन्होंने पहली बार वहां ज्ञान का प्रसार किया था। वहां का समाज मातृप्रधान था इसलिए पौरोहित्य का काम वहां की महिलाओं ने संभाला था।

किन विषेष परिस्थितियों में संस्कृत भाषा से प्रभावित एक समुदाय किन अन्तरालों या पड़ावों से गुजरता हुआ अश्‍वक्षेत्र से ब्रिटेन पहुंचा था जिसकी पहचान अंग्रेजी में केल्टिक तत्वों के रूप में की गई है और जिसके कारण अंग्रेजी के बहुत से शब्द सीधे संस्कृत से जुड़ते हैं, यह पता लगाने का प्रयत्न नहीं किया गया। परन्तु यदि यह प्रस्थान किसी दबाव में हुआ हो तो हम स्थानीय जनों से संबंध और उनकी भारतीयों के प्रति प्रतिक्रिया को इस आधार पर समझ नहीं सकते। अतः इनको हम तब तक के लिए स्थगित रख सकते हैं जब तक स्थिति अधिक स्पष्ट न हो जाय।

हमने इसका उल्लेख इसलिए किया कि इतिहासकारों के बीच मान्य दो भ्रान्तियों का निराकरण कर सकें। पहला यह कि घोड़े के पालन का आरंभ आर्यों ने किया और दूसरा यह कि अरायुक्त पहिये का आविष्कार आर्यों ने किया, ये दोनों मान्यताएं गलत हैं। अश्‍वपालन और प्रशिक्षण के क्षेत्र में पहल आर्यों की नहीं सैन्धव जनों की थी जो बहुत पहले से यह काम करते आए थे और ऋग्वेद में पहिए और रथनिर्माण में दक्ष भृगुगण थे - एतं वां स्तोमं अश्विनौ अकर्म अतक्षाम भृगवो न रथम्। भृगुगण यज्ञ और इन्द्र की श्रेष्‍ठता को नहीं मानते थे, वरुण को सर्वोपरि मानते थे- हता मखं न भृगवः! वैदिक अभिजातवर्ग, जो खेती में नहीं वाणिज्य में आगे बढ़ा हुआ था सबका अपनी योजना के अनुसार उपयोग में ला रहा था और बहु स्तरीय और बहुभाषी तत्वों की अपनी साझेदारी से आगे बढ़े इस समाज में भाषा, विचार, संस्कार सभी पर उसकी छाप थी और सामान्य व्यवहार में उसी क सहारा लिया जाता था।

वैदिक समाज अपने समय को देखते हुए सबसे शक्तिाशाली था, सबसे सभ्य था, सबके लिए अनुकरणीय था, यह विभिन्न भौगोलिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों में देखा जा सकता परन्तु इसने अपनी शक्ति, ज्ञान और कौशल को संयत और अनुशासित और संवेदनशील बना कर रखा था और उसकी यह अग्रता तक, दमन और उत्पीड़न से परहेज तक, बर्बर अवस्थाओं में जीने वालों को आश्‍चर्यजनक लगता था। इस अनुशासन के कारण ही वे पूर्व, जिसका अर्थ उस समय ईरान और भारत था, यद्यपि यह उनके लिए लघु एशिया था जिस पर और जिसके आसपास की आबादी पर इन्होंने अपने आभिजात्य का ऐसा प्रभाव कायम किया था कि वहां की सोच, साहित्य, विचार, धर्म और दर्शन सभी को इन्होंने प्रभावित किया ।
यह आरंभ हुआ उसी अश्‍व व्यापार से जिस पर इनका एकाधिकार था और इस नई पण्यवस्तु के कारण इन्होंने असीरियनो से व्यापार का एकाधिकार छीन लिया था और उनके केन्द्र कानेस (kanes) पर 2000 ईपू में हावी हो गए थे और हजार डेढ़ हजार साल तक अपना वर्चस्व बनाए रहे। कहें यह सांस्‍कृतिक प्रसार भारत से मध्‍येशिया और वहां से अश्‍वव्‍यपार के चलते लघु एशिया और आस पास के क्षेत्र में हुआ लगता है।

इनके वर्चस्व का आधार सैन्यबल नहीं था, न्याय बल था। वहां के दमन और उत्पीड़न के जवाब मे, सहृदयता और सहानुभूति पूर्वक प्रजावत्सलता दिखाते हुए शासन। इस व्यवहार में उन्हे लोकप्रियता दी उसके कारण वे पश्चिम एशिया के सबसे प्रभावशाली अभिजात बने रहे और कुछ क्षेत्रों में राजकाज भी संभाला जिनकी वंशावलियां इतनी बार दुहराई गई हैं कि यह जानते हुए भी कि हमारे मित्रों में कुछ ऐसे भी होंगे जिन्हें उनका पता न होगा, हम उसे छोड़ना उचित समझते हैं।

परन्तु इस प्रजावत्सलता का प्रतिलाभ जनता के सम्मान और उन पर लगाए गए देय भाग को बिना छल कपट के चुकाते रहने को भी निरंकुशता का प्रमाण बनाया जा सकता था और बनाया गया। जिस ओरिएंटल डिस्पाटिज्म की बात हाल में मिल ने उठाई, जिसे उसे पढ़ कर मार्क्‍स ने बिना छान बीन किए मान लिया और जिसे आज भी पश्चिमी विद्वान दुहराते मिल जाएंगे वह उस हीन भावना की उपज थी जिसके समझ वे बर्बर सिद्ध होते थे और अपनी नजर में और दूसरों की नजर में गिरने से बचने के लिए यह आरोप वे पूरब के लोगों, या एशियावासियों पर डाल कर मुक्त होना चाहते थे। ग्रीक दार्शनिकों में से कुछ ने अपनी इसी जुगुप्सा को यह स्वीकार करते हुए व्यक्त किया था कि पूर्व के लोग अधिक ज्ञानी और सूझबूझ वाले हैं, परन्तु उनमें वह ओजस्विता या स्पिरिट नहीं पाई जाती जो यूरोप के लोगों में मिलती थी। ध्यान रहे कि यह टिप्पणी अरस्तू की हैः

Aristotle asserted that oriental despotism was not based on force, but on consent. Hence, fear could not be said to be its motivating force, but rather the servile nature of those enslaved, which would feed upon the power of the despot master. Within ancient Greek society, every Greek man was free and capable of holding office; both able to rule and be ruled. In contrast, among the barbarians, all were slaves by nature. Another difference Aristotle espoused was based on climates. He observed that the peoples of cold countries, especially those of Europe, were full of spirit but deficient in skill and intelligence, and that the peoples of Asia, although endowed with skill and intelligence, were deficient in spirit and hence were subjected to slavery. Possessing both spirit and intelligence, the Greeks were free to govern all other peoples (Politics 7.1327b)

भारतीय सन्दर्भ में राजा के विषय में दो स्पष्ट धारणाएं मिलती हैं ! एक तो यह कि वह राज्य का संचालन प्रजा से वसूले गए कर के बल पर करता है इसलिए वह जनभक्ष है - जनभक्षो न राजा । दूसरे यह कि प्रतापी राजा प्रजा के लिए उसी तरह उत्पीड़क होता है जैसे निदाघ का सूर्य धरती को तप्त कर देता है - तपन्ति शत्रुं स्वर्ण भूमा महासेनासः अमेभिः ऐषाम् । दूसरा यह कि आदर्श राजा प्रजा का वैसा ही हितैषी होता है जैसा कोई मित्र- हितमित्रो न राजा। राजा निरंकुशता के कारण नहीं, सत्य, न्याय और सदाशयता के कारण आदरणीय होता था - ऋतेन य ऋतजातो विवावृधे राजा देव ऋतं बृहत्। बर्बरता की स्थिति से उभरे पश्चिमी जगत में बात बात पर झगड़ा, फसाद उनकी ओजस्विता का प्रमाण प्रतीत हो सकती थी, परन्तु यह एक क्षतिपूर्ति थी जिसकी जड़े हजार साल गहरी थीं जिसमें वे अपनी भाषा, संस्कृति और दर्शन सब कुछ उसी पूर्व से ग्रहण करने को प्रेरित हुए थे जिसके तन्त्र पर यदि काम हुआ भी हो तो वह हमारी जानकारी में नहीं है परन्तु अन्‍यथ उपलब्‍ध प्रमाणों को झुठलाया नहीं जा सकता था! यह याद रहे कि जिस त्राय के राजा प्रियम पर ग्रीकों ने आक्रमण किया था और उस नगर को तबाह किया था उसके पीछे एशियाइयों, कहें पूरबियों के प्रति आक्रोश का स्वर पहचानना कठिन नहीं है। यह भी ध्यान देने की बात है कि महाकवि होमर ग्रीक नहींं एशियाई था और ग्रीक का प्रसार एशिया माइनर में था, उसका विकास भी यहीं हुआ हो सकता है और आगे चल कर उसका विस्तार ग्रीस के कबीलों के बीच हुआ जो बहुत बाद तक कबीलाई संस्करों से मुक्त नहीं हो पाए थे!

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