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शमशान! हूँह्ह.... यार क्या फालतू की बात है .... मृत देह को पंचतत्व मैं विलीन करने के लिए एक डेढ़ गज की जगह ही तो चिता के लिए चाहिए....
और कब्रिस्तान! भाई हर मृतक को दो दो गज जमीन तो मिले अलग अलग , ना जाने कब आए वो कयामत का दिन जब तक इनको यहाँ आराम करना हो...
शायद ये ही सोच रही हो कि गाँवों मैं भले ही मुसलमानों के दो-चार घर हों लेकिन बीघे या बीघों भर का आबंटित कब्रिस्तान छोटे से मजरे मैं भी होता है...... और अखिलेश सरकार ने इन कब्रिस्तानों कि सुरक्षा के लिए बाउंड्रीवाल और सबमरसेबील पंप आदि की व्यवस्था की गईं हैं .....
खैर कोई बात नहीं मृतक से किसी को कोई राग द्वेष नहीं सो एसी व्यवस्थाएँ हो तो हमको क्या एतराज ? हालांकि वो बात अलग है कि मुसलमान अपने अनजहानी को सुपुर्द ए खाक करने के लिए आते हैं तो चूंकि गड्ढा पहले से ही तैयार होता है तो लोग साधारणतया बमुश्किल आधा घंटे ही वहाँ रुकते हैं



वहीं हम हिन्दू अपने मृत परिजन को भले ही पाँच तत्व मैं विलीन करते हों , लेकिन ये अंतिम कार्य कुछ तो सिस्टेमेटिक ढंग से होना अपेक्षित होता ही है , सो अंतिम क्रिया मैं बंधु बांधव और मिलने वाले शमशान पर 5-6 घंटे तो रुकते ही हैं ...... किन्तु ,
अगल बगल के दबंग किसानों द्वारा अतिक्रमित हो चुके संकरे से शमशान...... गर्मी मैं चिलचिलाती धूप ...... आसपास कहीं दूर तक छाया नहीं ……. बैठने तक की व्यवस्था नहीं ........ ऊपर से चिता की गर्मी..... साथ आए लोगों का धेर्य जबाब दे जाता है ..... झटपट कपाल क्रिया की प्रक्रिया शुरू होती है ..... कच्चे कपाल मैं छिद्र हो नहीं पाता और ना ही घी प्रविष्ट हो पाता है .... दाग देने वाले की इच्छा के विपरीत फोर्मेलिटी पूरी करवा लोग वापस निकल लेते हैं......
उधर वारिश के दिन...... अंतिम यात्रा पानी और कींचड़ भरी पगडंडी से शमशान पहुँचती है ...... यहाँ भी पानी भरा हुया है ...... किसी प्रकार चिता के लिए जगह बनाई जाती है ..... ज्यों ही चिता को आग लगी , त्यों ही झमाझम पानी आया और चिता बुझ ही गयी..... सूखी लकड़ी मंगाईं जातीं हैं लेकिन पानी है की ऊपर से आना बंद ही नहीं होता ...... बार बार कोशिस करने पर भी अग्नि पुनः प्रज्वलित हो ही नहीं पाती..... फिर वो ही कच्ची कपाल की प्रक्रिया ..... रात्रि मैं अधजले शव को कुत्ते और दूसरे जंगली जानवर अपना भोजन बनाते हैं

ये हालात होते हैं गांवों मैं शमशान के ...... यद्यपि सामान्यतया जिसके पास थोड़ी सी भी कृषि भूमि होती है वह मृतकों की अन्त्येष्टि अपनी भूमि मैं...... तो जो मामूली सा भी समर्थ होता है वह पास या दूर किसी नदी के किनारे अन्त्येष्टि करते हैं...... लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर वे लोग जिनके पास अपनी कृषि भूमि नहीं है , निसंदेह उनके लिए अपने परिजन की मृत्यु से भी ज्यादा दुखद उसकी अन्त्येष्टि होती है.......

देख लें सारे सेकुलरिए , वामी , अप्पू , पप्पू …….. मोदी ने क्या गलत कहा है ..... अखिलेश ने कब्रिस्तानों पर बाउंड्री वाल और सबमर्सेबल की व्यवस्था की तो क्या किसी हिन्दू ने कोई एतराज किया ..... लेकिन जब एतराज नहीं किया तो क्या उनकी अपनी अपेक्षा भी खत्म हो जाती है कि शमशान की जो भी थोड़ी घनी जमीन है वो अतिक्रमण से से मुक्त हो , चिता के लिए एक-दो चबूतरे ..... चिता को वारिश से बचाने के लिए और अंतिम सहयात्रियों के बैठने के लिए शैड ..... अन्त्येष्टि के पश्चात शुद्धि स्नान के लिए सबमर्सीबिल पंप की व्यवस्था न हो .....

खैर जो भी है अपने अपने हिसाब से सोचने को स्वतंत्र है ...... Narendra Modi जी ने कोई साधारण बिन्दु नहीं वल्कि एक मानवीय बिदु को छूआ है..... इस बिन्दु को हल्के या हास्यास्पदरूप मैं लेने वाले बड़ी गलत फहमी मैं जी रहे हैं ..... इस बिन्दु के लिए मोदी जी पर किसी सांप्रदायिक या धार्मिकता का आरोप लगाने वाले लोग मृत्यु जैसे यथार्थ की सचाई को हल्के फुल्के रूप मैं लेकर नकार रहे हैं......
Amit Shah जी इस मानवीय बिन्दु को धड़ल्ले से भाजपा का पूरक घोषणा पत्र घोषित करें...... अंततः ये ABP News, NDTVRavish Kumar, NDTV, Aaj Tak, Zee News, Hindi News18 India जैसे चैनल वाले ही लाशों के जलने के स्थान मजबूरी और तरीके को लेकर न्यूज सीरियल चलते रहते हैं ना ..... सो ये बिन्दु उनके इन्हीं न्यूज सीरियल्स का ही तो समाधान है .....

(चित्र - साभार गूगल)

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