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एक कहानी पढ़ी भी थी बचपन में, और आजकल social media पर भी घूमती है बहुत। लोकप्रिय है।

कहानी कुछ यूँ है कि एक बिच्छू नदी में डूब रहा था । एक साधू उसे बचाने के लिए पानी से उठाया तो बिच्छू ने उसे डंक मारा । इस वजह से बिच्छू साधू के हाथ से गिर गया और डूबने लगा । साधू ने फिर उसे उठाया बचाने के लिए, लेकिन बिच्छू फिर उसे डंक मारा, और बिच्छू फिर उसके हाथ से छूट गया, लेकिन साधू ने उसे फिर उठा लिया, ऐसा कई बार हुआ है और अंत में साधू ने उस बिच्छू को बचा ही लिया ।

किनारे खड़े एक व्यक्ति ने उसे पूछा कि बिच्छू जब उसे बार बार डंक ही मार रहा था, तो उसने बिच्छू को क्यूँ बचाया।

साधू का उत्तर था कि डंक मारना बिच्छू की प्रवृत्ति थी, जीव को बचाना मेरी । उसने अपनी प्रवृति का पालन किया, और मैंने मेरी।

ये और इस तरह की कहानिया, जैसे गांधी "अहिंसा के दूत" को भारत की पहचान और शान बताना, इत्यादि उस ज़हर की कम मात्रा की खुराक है, small doses है, जो हमे बचपन से पिलाया जाता है, योजनाबद्ध तरीक़े से, जो हमे मृत प्रायः बना चुका है। वरना देश की राजधानी में घर में घुसकर डॉक्टर नारंग की हत्या ना कर पाते शांतिदूत, या राजधानी से मात्र 12 km दूर ग़ाज़ियाबाद में अपनी परिवार की महिलाओं का सम्मान बचाने की कोशिश कर रहे सिंहासन यादव की घर में घुसकर हत्या ना कर पाते शांतिदूत।

आपकी नसों में उतार दिया गया है ये ज़हर, कि बिना प्रतिरोध किए मर जाना आपकी प्रवृति है, और आपको हलाल करना व आपकी महिलाओं को भोगना शांतिदूत की प्रवृति है।

कई मित्र साफ़ कहते है कि शांतिदूत चाहे जो करे, हमे उनके स्तर पर नही उतरना है।

जो स्तर आपकी मौत लाए व आपकी महिलाओं को इस धरती पर ही नरक दे दे, उस से जितना जल्दी हो उतर जाइए ।

आपके अस्तित्व व आपकी स्वतंत्रता से बढ़कर कोई नियम, कोई सिद्धांत, कोई प्रवृति नही है। और अपनी महिलाओं के सम्मान की रक्षा से बढ़कर कोई धर्म नही है।

बिच्छू को मत बचाइये । आप अकेले नही है इस दुनिया में । बंधु बाँधव व बच्चे भी है। आप पर उनका अधिकार है या डंक ही मारने वाले बिच्छू का ?

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