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पाचवें चरण के विधानसभा चुनाव के लिये नामांकन प्रक्रिया चल रही है। बस्ती सदर विधानभा (310) के लिये सभी प्रमुख दलों ने अपने प्रत्याशी तय कर दिये हैं। यहां से पूर्व एमएलसी दयाराम चौधरी तथा निर्दल उम्मीदवार एडवोकेट केके उपाध्याय ने परचा भर दिया है। दयाराम चौधरी इससे पूर्व 2012 में पीस पार्टी के टिकट पर सदर विधानसभा से चुनाव लड़ चुके हैं, 23,709 वोट पाकर उन्हे तीसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा था। बीच में उन्होने पार्टी बदलकर भगवा धारण कर लिया।

इस बार उनका मुकाबला बसपा के वर्तमान विधायक जितेन्द्र कुमार उर्फ नन्दू चौधरी, सपा के युवा नेता महेन्द्र यादव, राष्ट्रीय लोकदल के राजा ऐश्वर्यराज सिंह, पीस पार्टी के अमरपाल सिंह तथा माकपा उम्मीदवार कामरेड केके तिवारी से हैं। हालांकि सदर सीट पर 1980 के बाद कभी कमल नही खिल पाया है। 2012 में 53,011 वोट पाकर जितेन्द्र कुमार उर्फ नन्दू चौधरी बसपा के टिकट पर चुनाव जीत गये थे। इस बार फिर उन पर बसपा ने उन पर भरोसा जताया है। जातीय समीकरण की बात करें तो सदर विधानसभा क्षेत्र में कायस्थ, ब्राहम्ण, राजपूत, बनिया अच्छी संख्या में हैं। पिछड़ों के वोट भी नतीजे बदलने की क्षमता रखते हैं।

सवर्ण उम्मीदवारों में राष्ट्रीय लोकदल के राजा ऐश्वर्यराज सिंह, तथा पीस पार्टी के अमरपाल सिंह लगातार प्रचार में जुटे हैं। माना जा रहा है कि ये दोनो प्रत्याशी जितना अच्छा चुनाव लड़ेंगे उतना ही भाजपा कमजोर होगी, सवर्णों को अपना वोट बैंक मानने वाली भाजपा को इस बार नुकसान हो सकता है। भाजपा का नाराज खेमा अलग से बांह बटोरे भितरघात करने का दांव खोज रहा है। जाहिर है टिकट न मिलने से खार खाये नेता पार्टी नेतृत्व को उसकी गलती का अहसास कराने में कोई कसर नही छोंड़ेंगे। सदर विधानसभा में इस बार कुल 3,47,033 मतदाता हैं जिनमें 1,87,749 पुरूष तथा 1,54,769 महिलायें हैं। कांग्रेस उम्मीदवार श्यामा देवी को शिकस्त देकर 1977 में जगदम्बा प्रसाद सिंह जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर जीत हासिल किया था, उन्हे 55.32 और श्यामा देवी को 35.36 फीसदी वोट मिले थे। 1980 में कांग्रेस की अलमेलू अम्माल ने जनता पार्टी के बाबूराम वर्मा को हराया था। 1985 में भी काग्रेस की अलमेलू अम्माल का इस सीट पर कब्जा रहा। उन्होने इस बार समाजवादी नेता राजमणि पाण्डेय को हराया।

हालांकि 1989 में राजमणि पाण्डेय ने जनता दल के टिकट पर कांग्रेस के जगदम्बिका पाल को हराकर जीत दर्ज कराया था। 1991 में जनता दल के टिट पर राजा लक्ष्मेश्वर सिंह ने यह सीट भाजपा के विजयसेन सिंह को हराकर अपने कब्जे में कर लिया। 1993 में कांग्रेस के जगदम्बिका पाल ने सदर विधासभा सीट पर जीत का परचम लहराया, भाजपा के विजयसेन सिंह को फिर मुह की खानी पड़ी। 1996 में बसपा के दयाराम चौधरी को हराने के बाद कांग्रेस के जगदम्बिका पाल की बादशाहत कायम रही। 2002 में भी पाल ने जितेन्द्र कुमार चौधरी को चुनाव हरा दिया। 2007 में बसपा के जितेन्द्र कुमार उर्फ नन्दू चौधरी ने लगातार तीन बार जीत दर्ज कराने वाले दिग्गज कांग्रेसी जगदम्बिका पाल से यह सीट छीन ली। पुनः 2012 में जितेन्द्र कुमार ने सभी कयासों को धता बताकर जगदम्बिका पाल के बेटे कांग्रेस उम्मीदवार अभिषेक पाल को चुनाव हरा दिया। एक बार फिर वे चुनाव मैदान में हैं।



रणनीतिकार और जनता का रूख बताते हैं कि बसपा के वोट बैंक में कोई खास मी नही आयी है, यहां समाजवादी पार्टी के झगड़े ने उसका जनाधार कम किया है, दिग्गज सपा समर्थकों का पार्टी से मोहभंग हुआ है, सपा के लिये यदि कुछ खास है तो वह है कांग्रेस के साथ गठबंधन। इसका असर जमीनी स्तर पर भी दिखा तो सपा उम्मीदवार मजबूत स्थिति में आ सकता है, फिलहाल ऐसा मुश्किल प्रतीत होता है, टिकट न पाने से निराश कांग्रेस कार्यकर्ता इस वक्त खुद को कुण्ठाग्रस्त होने से बचा लें यही बड़ी बात है। यहां मतदान 27 फरवरी को होना है। तब तक चुनावी समीकरण कई बार बनेंगे बिगड़ेंगे। संभव है कि कोई दिग्गज निर्दल से परचा दाखिल कर दे और सारे समीकरण और कयास धरे रह जायें। फिलहाल वर्तमान की स्थिति में इससे ज्यादा कुछ भी कहना उचित नही होगा।

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