हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास-33
भाषा और संस्कृति के क्षेत्र में राजनीतिज्ञों के हस्तक्षेप से दोनों का अहित होता है, यह हस्तक्षेप कितने ही गहरे या लुभावने सरोकार से क्यों न किया गया हो । राजनीतिज्ञों को दोनों की समझ नहीं होती।
हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास - ३३
भाषा और संस्कृति के क्षेत्र में राजनीतिज्ञों के हस्तक्षेप से दोनों का अहित होता है, यह हस्तक्षेप कितने ही गहरे या लुभावने सरोकार से क्यों न किया गया हो । राजनीतिज्ञों को दोनों की समझ नहीं होती। इतनी फुर्सत ही नहीं होती कि वे इनमें गहरी रुचि ले सकें और इनकी प्रकृति को समझ सकें। लेने लगें तो फिर राजनीति जैसे क्षेत्र में रुचि न रह जाएगी।
राजनीति में सफलता साधनों की प्रकृति निर्धारित करती है अतः इसमें अनुयायियों की एक फौज तैयार करनी होती है जो अपने नेता के कहने पर चलते हुए उस लक्ष्य को पाने को तत्पर रहती हैं। यही कारण है कि राजनीतिक संगठनों की प्रकृति सैन्य संगठनों से अभिन्न हो जाती है। सेना और युद्ध दोनों समाज में पाशविकता के अवशेषों के प्रमाण है अतः संस्कृति विरोधी तो हैं ही, अनुशासन के कारण सेना के पास जबान नहीं होती, असहमति की छूट नहीं होती, अतः वह वाचाल गूंगों की जमात बन जाती है जिसके पास शब्द हो सकते हैं, भाषा नहीं हो सकती।
भाषा सोच, असहमति, पुनर्विचार और निर्णय की संभावनाओं के बीच ही जिन्दा रह सकती है इसलिए सरकारों द्वारा भी किसी भाषा को लादा जा सकता है, उसका विकास संभव नहीं। भाषा का यान्त्रिक विकास यन्त्रमानव ही पैदा कर सकती है जो आग्रही हो सकते हैं, समझदार नहीं।
सच तो यह है कि भाषा और संस्कृति की जड़ें इतनी गहरी और इनका विकास इतना रहस्यमय है कि इनको नैसर्गिक और जीवन्त विकास कहा जा सकता है। इसके कारण ही इन दोनों की प्रकृति सर्वाधिक जनतान्त्रिक होती है जिसमें जन का अनर्गल भी रच पच जाता है, परन्तु हस्तक्षेप से डाला गया शिष्ट और सुरुचिपूर्ण भी असह्य और अग्राह्य हो जाता है।
सर सैयद अहमद ने उर्दू की इतनी चिन्ता न की होती और भाषाई लोकतन्त्र का सम्मान किया होता तो कुछ लोगों की इस मांग का विरोध करने की बात सोचते ही नहीं कि वह अरबी लिपि में लिखी उर्दू के साथ नागरी लिपि में लिखी हिन्दी में भी शिक्षा पाने और अपनी बात कहने का अवसर मांगने वालों को उर्दू विरोधी मानते। जबांबन्दी का यह आलम और वह भी उस दौर में जब उर्दू का ही एक शायर जबांबन्दी पर शिकायत कर रहा था कि यहां तो बात करने को तरसती है जबां मेरी!
यही अधिकार तो मांगा था हिन्दी के हिमायतियों ने। पर दोनों की नजर दो अलग चीजों पर थी। जैसा हम कह आए हैं, सर सैयद को लगा कि पहले तो बंगाली हिन्दुओं ने सारे ओहदे छीन लिये थे, अब हिन्दी प्रदेश में (जिसके लिए आप हिन्दुस्तान का भी प्रयोग कर सकते हैं क्योंकि तुर्कों के समय मे सुनते हैं हिन्दी प्रदेश को ही हिन्दुस्तान कहा जाता था और इसका प्रमाण है बंगाली जनसाधारण हिन्दी भाषियों को हिन्दुस्तानी या पंजाबी मानते रहे हैं) हिन्दू मुसलमानों को उन ओहदों से भी वंचित करना चाहते हैं जो उर्दू के व्यवहार पर टिकी थी। परन्तु वह जिस भाषा का समर्थन कर रहे थे वह जनसाधारण के लिए अरबी लिपि के शिकस्ता प्रयोग के कारण अपाठ्य और अरबी-फारसी गर्भित प्रयोगों के कारण अगम्य लगती थी। इसके कारण इसमें दक्ष दलालों की चांदी थी, जिनमें हिन्दू मुसलमान दोनों शामिल थे, पर मुसलमानों की संख्या अधिक थी।
उनको भाषा नहीं, रोजगार दिखाई दे रहा था और डर यह था कि यदि नागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी का प्रयोग आरंभ हो गया तो वह अग्रता भी गई । हम कहें सर सैयद राजनीतिक होने के कारण भाषा की समस्या को पेट के सिरे से समझ रहे थे जब कि हिन्दी की मान्यता के लिए पुकार लगाने वाले समस्या को जबान के सिरे से समझ रहे थे और जिसे इसका फैसला करना था वह अपने जूते के सिरे से इस समस्या का हलाभला करना चाहता था और सर सैयद पेट की समस्या को जूते की मदद से सुलझाना चाहते थे तो आपको बुरा लगेगा, पर सचाई और उसके परिणाम अक्सर इस इबारत से भी बुरे साबित होते हैं।
उर्दू को अपदस्थ किए बिना नागरी में लिखी जाने वाली हिन्दी को भी स्वीकृति दिए जाने के अनुरोध को सांप्रदायिकता से जोड़ कर पहली बार, संभव है अपने इरादों के विपरीत, या संभव है जो वह कहते थे वह दिखाने के लिए था और जो वह करना चाहते थे वह केवल अपने समुदाय तक सीमित था और उसके हित का जहां किसी अन्य से टकराव हो वहां वह उसके अहित की कीमत पर भी अपना हित साधना चाहते थे, और यहीं से उन्होंने दो धर्मानुयायियों के बीच सामाजिक विभेद पैदा किया जो मध्यकालीन दमन और उत्पीड़न से भिन्न था, क्योंकि उसका समाज पर प्रभाव न पड़ा था।
पहली बार जो विभेद शासकीय हुआ करता था उसे सर सैयद ने सामाजिक बना कर इसे सांप्रदायिक समस्या बना दिया और इसके बाद भी कवलग्राही विद्वानों ने सर सैयद को सेक्युलर और भारतेन्दु को कम्युनल सिद्ध कर दिया और हिन्दी समाज इसे तालियां बजाते हुए चूसता भी रहा।
यह कहना गलत होगा कि इसी कम्युनल सोच का परिणाम था सर सैयद का आमंत्रण के बाद भी कांग्रेस में शामिल न होना, क्योंकि उनका यथार्थबोध यह मानता था की इस अवस्था में मुसलमानों का भी कांग्रेस में सम्मिलित होने का अर्थ होगा कांग्रेस को पूरे देश का समर्थन, जब कि शिक्षा में पिछड़ा मुस्लिम समाज इसका लाभ उठा नहीं पाएगा, उठाएंगे हिन्दू और मुसलमान और भी पिछड़ जाएगा। उसे एकपक्षीय सरकारी समर्थन से भी हाथ धोना पडेगा! यह सोच गलत नहीं थी, फिर भी सही नहीं थी क्योंकि इससे सांप्रदायिक अलगाव और तीखा हो गया।
जो समस्या मुसलमानों की थी, वही बंगाल से बाहर के हिन्दुओं की थी। सभी पिछड़ गए थे और सभी को अपने उन्नयन के लिए अवसर की तलाश थी। पिछड़ने का कारण हिन्दू या मुसलमान होने से अधिक आधुनिक शिक्षा से वंचित रह जाना था। मुसलमानों के मामले में समस्या अधिक जटिल थी, उनका अंग्रेजी शिक्षा से मजहबी विरोध था। हिन्दुओं की समस्या उच्च शिक्षा की सुविधाओं का अभाव मात्र था। शिक्षित हो कर वे अपनी दशा सुधार सकते थे। इसे छोड़ कर उर्दू के सवाल को अग्रता दे कर मामूली रियायतों के लिए एक अधिक गहरी फांक पैदा कर दी जिसे दिनोंदिन चैड़ा होता जाना था। परंतु जो बात हमें आज गलत लग रही है वह बहुतों को आज भी गलत नहीं लग सकती है और मैं उनको गलत कहने से बचना चाहूंगा!
पर भाषाएं राजनीतिक संरक्षण से न तो जिन्दा रहती हैं न विकास करती हैं! ये अपने साहित्यकारों और चिंतकों के बल पर जीवित रहती और विकास करती और स्वीकार्य बनी रहती हैं। जिस भाषा में मीर और गालिब और मोमिन पैदा हो चुके हों वह मर नहीं सकती।, किसी लिपि में बन्द करके, उनका बन्धकों की तरह उपयोग करके जिन्दा रखना चाहो तो वे अपनी कारा तोड़ न पाने के कारण अवश्य तब तक के लिए शीतनिद्रा में जा सकते हैं जब तक माहौल न बदले।
जिन भाषाओं में तुलसी हो चुके हों, रीति काल के मनोग्राही कवि हो चुके हों विद्यापति हो चुके हों वे मर नहीं सकतीं, उन तक पहुंचने के रास्ते निकालने होंगे। हिन्दी की प्रकृति से मेल नहीं खाते तो वे नहीं बदलेंगे, हिन्दी में ही लोच पैदा करके उनको अपना अंग बनाना होगा।
भाषा के साथ लिपि नहीं जुड़ी होती, अन्यथा उसका वाचिक अस्तित्व ही संकट में पड़ जाय, पर उसका वैभव अवश्य जुड़ा रहता है और वही उसे जीवित रख सकता है। उर्दू को मुसलमानों की भाषा बता कर, उसे क्रमश: मुसलमानों की भाषा और अरबी लिपि में लिखे जाने पर ही मुसलमानों के काम की भाषा बना कर उसकी हत्या की गई पर वह अपने रचनाकारों के बल पर इन दीवारों को पार करके जितना उस देश में जिन्दा है जिससे उसको अलग किया गया था, उतना उस देश में भी नहीं जिसे उसको बसाने के लिए बनाया गया था।